Book Title: Siribhuyansundarikaha
Author(s): Sinhsuri, Shilchandrasuri
Publisher: Prakrit Text Society Ahmedabad
View full book text
________________
७९०
सिरिभुयणसुंदरीकहा ॥ वाऊ वि होइ जीवो संघट्टह तं पि धम्मबुद्धीए । काऊण वीणएणं पवणं संधुक्कह हुयासं ॥८६६२॥ एए वि वणप्फइणो जीवा तरु-कंद-मूल-फलमाई । भक्खह अकयवियप्पा तुब्भे वि निरीहबुद्धीए ॥८६६३।। वहह जडापब्भारं बहुलिक्खा-जूयलक्खआवासं । ताणुच्छेयणहेऊ चिंतह नाणाविहोवाए ॥८६६४॥ एएण कारणेणं भणियं जं तुम्ह किर अणुट्ठाणं । धम्मनिमित्तं तं चिय जिणागमे पावसंजणणं' ॥८६६५।। तो केवलिणो वयणं सव्वे सोउं भणंति एवमिणं । अन्नाणचिट्ठियं खलु सव्वमिणं अम्ह अ(5)णुट्ठाणं ।।८६६६।। अंधाणुमग्गलग्गो अंधो जह भमइ उप्पहपयट्टो । तह मुणिवरिंद ! अम्हे अन्नाणगुरूवएसेण ।।८६६७।। जह पुव्वदेसगामी जाइ दिसामोहपुरिसवयणेण । दक्खिणदिसंमि जंतो न पावए इच्छियं छा(ठा)णं ।।८६६८।। अज्ज वि न किं पि नटुं उद्धरह भवन्नवंमि निवडतं । अन्नाणमोहिए मुणिवरिंद! नियधम्मदाणेण' ||८६६९।। तो भणइ वीरसेणो ‘अन्नाणहया पयट्टकुग्गाहा । मन्नति अधम्म पि हु मूढमई धम्मबुद्धीए ||८६७०।। जह केइ धाउवाई अत्थनिमित्तं मुहा किलिस्संति । निप्फलकिरियानिरया साहति न किं पि परमत्थं ॥८६७१।। तह धम्मगाहगा वि य साहति न किं पि एत्थ परमत्थं ।
अफलकिरियाणुलग्गा एमेव मुहा किलिस्संति ||८६७२।। व्यजनेन ।।
१.
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org
Page Navigation
1 ... 797 798 799 800 801 802 803 804 805 806 807 808 809 810 811 812 813 814 815 816 817 818 819 820 821 822 823 824 825 826 827 828 829 830 831 832 833 834 835 836 837 838