Book Title: Siribhuyansundarikaha
Author(s): Sinhsuri, Shilchandrasuri
Publisher: Prakrit Text Society Ahmedabad

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Page 797
________________ ७८८ सिरिभुयणसुंदरीकहा ॥ एवं सो पव्वइओ सुविसुद्धन्ना(ना)णघरणसंजुत्तो । अइयारभउब्भंतो विसुद्धपव्वज्जगुणजुत्तो ॥८६४०।। अज्जिणइ कम्मं न य सो संसारावत्तकारणं तत्तो । जम्म-जरा-मरणाणं कुणइ खयं जीवविरिएण ||८६४१।। दडंमि जहा बीए परोहइ अंकुरो पुण न जम्हा । तह कम्मबीयदाहे न जम्म-मरणंकुरा हुंति ||८६४२।। तो खीणासुहबंधो जीवो पाउणइ नियसरूवं पि । किरियारहिओ सुद्धो निययसहावडिओ होइ ।।८६४३।। तो सो अणंतवरनाणदंसणो तह अणंतविरिओ य । एसो च्चिय पुव्वोत्तो निययसहावो इमस्स भवे ।।८६४४।। तो सद्द-रूव-रस-गंध-फासहीणो अणंतगुणनिलओ । पयईए उड्डगामी पावइ अइरेण सिद्धिगई' ।।८६४५।। इय एवं परिकहिए केवलिणा परमधम्मसब्भावे । आणंदजायपुलया चंदसिरी भणिउमाढत्ता ॥८६४६।। 'जइ अत्थि मज्झ भयवं! पव्वज्जाजोग्गया तया देह । पुव्व(व्यु)त्तं पव्वज्जं संपडियं मह जओ सव्वं' ।।८६४७।। तो केवलिणा भणियं ‘इहरा वि विसुद्धचरणनिरयाए । तुह चेव धम्मसीले! पव्वज्जाजोग्गया अत्थि' ||८६४८।। एत्थंतरंमि सव्वे कुलवइपमुहा सबाल-वुड्डा य ।। सकलत्ता सावच्चा सपरियणा तावसा बहवे ।।८६४९।। बहुकंद-मूल-फल-पुफ(प्फ)-पत्तहत्था विणीयवेसधरा । वियडजडाजूडवहा कयभूइविलेवणसरीरा ।।८६५०।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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