Book Title: Siribhuyansundarikaha
Author(s): Sinhsuri, Shilchandrasuri
Publisher: Prakrit Text Society Ahmedabad
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७८६
सिरिभुयणसुंदरीकहा ॥ जायंति अपत्थाओ वाहीउ जहा अपत्थनिरयस्स । संभवइ कम्मवुड्डी तह पावापत्थनिरयस्स ॥८६१८।। अइगरुओ कम्मरिऊ कयावयारो य नियसरीरत्थो । एस उवेक्खिज्जंतो वाहिव्व विणासए अप्पं ॥८६१९।। मा कुणह गयनिमीलं कम्मविघायंमि किं न उज्जमह ? । लभ्रूण मणुयजम्मं मा हारह अलियमोहहया ।।८६२०।। अच्वंतविवज्जासियमइणो परमत्थदुक्खरूवेसु । संसारसुहलवेसुं मा कुणह खणं पि पडिबंधं ॥८६२१।। किं सुमिणदिट्ठपरमत्थसुन्नवत्थुसु करेह पडिबंधं ? । सव्वं पि खणियमेयं विहडिस्सइ पेच्छमाणाण ॥८६२२।। संतंमि जिणुद्दिढे कम्मक्खयकारणे उवायंमि । अप्पायत्तंमि न किं तद्दिठ्ठभया समुज्जमह ? ||८६२३।। जह रोगी को वि नरो अइदूसहरोगवेयणादुहिओ । तदुहनिम्विन्नमणो रोगहरं वेज्जमन्निसइ ।।८६२४।। तो पडिवज्जइ किरियं सुवेज्जभणियं च वज्जइ अपत्थं । तुच्छन्नपत्थभोई ईसीसुपसंतवाहिदुहो ॥८६२५।। ववगयरोगातंको संपत्तारोग(ग्ग)सोग्ग(क्ख)संतुट्ठो । बहु मन्नइ सुवेज्जं अहिणंदइ वेज्जकिरियं च ॥८६२६।। तह कम्मवाहिगहिओ जम्मणमरणाई(इ) दिट्ठतदुक्खो । तत्तो निम्विन्नमणो परमगुरुं तयणु अनिसइ ।।८६२७॥ लद्धंमि गुरुंमि तओ तव्वयणविसेसकयअणुट्ठाणो । पडिवज्जइ पव(व्व)ज्जं पमायपरिवज्जणविसुद्धं ॥८६२८।।
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