Book Title: Siribhuyansundarikaha
Author(s): Sinhsuri, Shilchandrasuri
Publisher: Prakrit Text Society Ahmedabad
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७८४
सिरिभुयणसुंदरीकहा ॥ तेल्लभं(भं)गियदेहे संचरइ नरंमि जह य मलपडलं । मिच्छत्ताइनिरुद्धे जीवंमि तहेव घणकम्मं ॥८५९६।। मिच्छत्तमसग्गाहो अवत्थुवत्थुत्तकप्पणारूवो । जेण अदेवं देवं मन्नइ धम्मं पि हु अधम्मं ॥८५९७।। मिच्छत्तमोहमूढो जीवो असमंजसाई आयरइ । अज्जिणइ जेहिं कम्मं चउगइभवकारणं घोरं ॥८५९८।। जो होइ अविरयप्पा विरइं न करेइ कम्मि वि पयत्थे । सो अविरईए जणियं बंधइ कम्मं दुहनिमित्तं ।।८५९९।। इह पंचहा पमाओ बंधइ कम्मं सुचिक्कणं सो वि । मज्जं विसय-कसाया निद्दा विगहा य इय भणिओ ।।८६००।। कोहो माणो माया लोभो चत्तारि हुंति य कसाया । अज्जिणइ जेहिं कम्मं कसायकलुसीकओ जीवो ॥८६०१।। जोगो य होइ तिविहो मण-वइ-कायाण दुट्ठरूवाण । जो वावारो सो वि हु बंधइ घणचिक्कणं कम्मं ॥८६०२।। इय मिच्छत्तप्पमुहं कहियं कम्माण कारणं दुटुं । तेहिं निवत्तियं जं तं कम्मं अट्ठहा होइ ।।८६०३।। नाणावरणं पढमं बीयं पुण दंसणस्स आवरणं । तइयं च वेयणीयं होइ चउत्थं च मोहणीयं ।।८६०४।। पंचममाउयकम्मं छठें नामं च सत्तमं गोत्तं । सव्वन्नुणोवइ8 तहऽट्ठमं अंतराइं(यं) च ।।८६०५।। एयाणं कम्माणं जिणेहिं दुविहा हि(ठि)ई समक्खाया । उक्नोसिया जहन्ना तहविहपरिणामभेएण ।।८६०६।।
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