Book Title: Siribhuyansundarikaha
Author(s): Sinhsuri, Shilchandrasuri
Publisher: Prakrit Text Society Ahmedabad

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Page 792
________________ ७८३ सिरिभुयणसुंदरीकहा ॥ पंचिंदियपंचमुहो विविहज्झवसायकेसरकरालो । मणसीहो सरहेण व तुमए निदारिओ दुट्ठो ॥८५८५।। इच्छादिढचावकरो पंचुब्भडविसयविसमसरपसरो । मयणमओ इव मयणो तुमंमि जलणो व्व पविलीणो ||८५८६॥ किं बहुणा ? संसारे जे किर संसारकारणं दोसा । ते जुगवं चिय तुमए निउणेण मुणिंद! निट्ठविया ।।८५८७।। गरुएहिं वल्लहेहिं तुमए आरोविएहिं अइदूरं । तव्विवरीया दोसा गुणेहिं निहया तुह मुणिंद!' ||८५८८।। इय हिययभंतरपसरतमाण-बहुमाण-भत्तिराएण । सब्भूयगुणुक्त्तिणथुईहिं थुणिओ महावीरो ।।८५८९।। तो सा जहत्थमुणिगुणसवणसमुल्लसियहरिसवडलेहिं । अहिणंदिया सुरेहिं पलोइया वियसियच्छे(च्छी)हिं ॥८५९०।। तयणु पियामह-मायामहाइसव्वाण मुणिवरिंदाण । पणमइ उवविसइ तओ चंदसिरीसन्निहाणंमि ।।८५९१॥ एत्थंतरंमि वीरो करट्ठियामलयसन्निहं सयलं । तैलोयं पेच्छंतो अह एयं भणिउमाढत्तो ॥८५९२।। 'जीवो अणाइनिहणो अणाइभववासदिट्ठबहुदुक्खो । तह वि न इमस्स जायइ निव्वेओ दुक्खहेऊसु ।।८५९३॥ जीवस्स दुक्खहेऊ कम्मं कम्मस्स हेउणो एए । मिच्छत्तमविरई तह पमाय-जोगा कसाया य ।।८५९४।। जह य सधूमे गेहे संकमइ कमेण कलुससब्भावं । धुंयसपडलं जीवे मिच्छत्ताईहिं तह कम्मं ।।८५९५॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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