Book Title: Siribhuyansundarikaha
Author(s): Sinhsuri, Shilchandrasuri
Publisher: Prakrit Text Society Ahmedabad

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Page 790
________________ ७८१ सिरिभुयणसुंदरीकहा ॥ दोपासेसु समुज्जलससहरकरपंडुरं च चमरजुयं । . घेत्तूण ठंति देवा परमेसरवीरसेणस्स ॥८५६३॥ तो काऊण पणामं तित्थस्स अणंतगुणसमिद्धस्स । उवविसइ कमलगब्भे रायरिसी सुरनमिज्जंतो ॥८५६४।। सिरिसूर-विचित्तजसा-असोय-सेहरय-बंधुयत्ता य । इयमाइमुणिवरिंदा उवविठ्ठा वीरपासंमि ।।८५६५।। इय विहियसुरविभूई जणयं दठूण अमरसेणो वि । भइणीपइणो साहइ ‘हरिविकुम ! एस मह ताओ ।।८५६६।। एसो पियामहो मे एसो मायामहो य मह होइ । एसो य बंधुयत्तो एए उण सेहरासोया ॥८५६७।। उप्पन्नं एएसिं पायं जाणामि केवलं नाणं । छउमत्थाण न जम्हा देवा एवं ववहरंति' ।।८५६८।। हरिविकुमेण भणियं ‘नरिंद ! धन्नो म्हि जेण गुणपयडो । दिट्ठो मए महप्पा महामुणी वीरवरनाहो ।।८५६९।। ते धना जाण मणे वि होंति एवंविहा महामुणिणो । संपडइ जाण किर दंसणं पि किं ताण इह भणिमो ।।८५७०॥ इय भणिउं संभंता हरिसवसुलसियबहलरोमंचा । काउं पुरओ देवि चंदसिरिं चारुचारित्तं ॥८५७१।। सिरिअमरसेणराया कुमरो हरिविकूमो य वच्चंति । चरणपयारेणं चिय दूरीकयरायफरडमरी ||८५७२।। गंतूण तत्थ पुरओ सुद्धज्झवसायझडियकम्मंसा । कयकेवलिपयपूया नीसहभूखित्तपंचंगा ।।८५७३।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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