Book Title: Siribhuyansundarikaha
Author(s): Sinhsuri, Shilchandrasuri
Publisher: Prakrit Text Society Ahmedabad

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Page 789
________________ ७८० सिरिभुयणसुंदरीकहा ॥ ता सहसच्चिय दिट्ठो पहिट्ठमुणिनिवहसिरनमिज्जंतो । एक्कग्गखित्तलोयण-मण-सुरगणझायमाणो य ॥८५५२।। सिरधरियधवलछत्तो सुरचालियउभयपाससियचमरो । सुर-असुरसमुग्घोसियजयजयरवबहिरियदियंतो ।।८५५३।। समुहट्ठियसुरगणपारियायपमुक्ककुसुमवरवुट्ठी । संपविभज्जइ सेस त्ति जस्स सीसेसु देवेहिं ॥८५५४॥ दीसंति जस्स उज्जलचरणनहालीओ सुरसिरग्गेसु । वुझंति दुव्वहा इव जस्स गुणा सुरवरसिरेहिं ।।८५५५।। सव्वत्तो सुर-किन्नरपणामसिरबद्धअंजलीबंधो । भयसेवागयकैरवसंडो इव सहइ दिवसयरो ॥८५५६।। पुच्छंतसुरवरेसुं सरलवलंतद्धतारयं दिढेि । करुणाय(इ) पेसिऊणं भिंदंतों ताण संदेहं ।।८५५७।। परिहरियउच्चगमणो नियडत्तणविहियनिच्छयमणेहिं । जोइज्जतो सेणालोएहिं संभंतमच्छीहिं ।।८५५८।। बहुसुरवरपरियरिओ नाणामणि-रयणमणिविमाणोहो । सग्गो व्व ओयरंतो अधन्नजणदुल्लहो पत्तो ।।८५५९।। सिरिवीरसेणसूरी अणंतगुणमुणिवरिंदपरियरिओ । ओयरिओ गयणाओ विसुद्धवसुहातले वीरो ||८५६०।। देवेहिं तओ तुरियं समतलवसुहायलं करेऊण । गंधुदएणं च तओ सिंचंति करेंति कुसुमोहं ॥८५६१।। उत्तत्तकंचणमयं कमलं विरयंति परमभत्तीए । लंबंतथूलमोत्तियमहायवत्तं च धारेंति ॥८५६२।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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