Book Title: Siribhuyansundarikaha
Author(s): Sinhsuri, Shilchandrasuri
Publisher: Prakrit Text Society Ahmedabad

View full book text
Previous | Next

Page 787
________________ ७७८ सिरिभुयणसुंदरीकहा ॥ अह पियसहिपरिवारा अविहवनियसयण - जुयइजणजुत्ता । पेरंतपहरणुब्भडबहुसुहडसहस्सकयरक्खा ॥८५३० ॥ अरुणपडनिबिडविरइयअवगुंडीपिहियसव्वतणुसोहा । हरिविक्कमस्स निब्भर अणुराएणं व संछन्ना ।। ८५३१।। सुपसत्थवराहरणा सुपसत्थनियच्छ-वत्थरुइरंगी । बहुविहपसत्थमंगलकोउयसयसमहियपहावा ||८५३२।। हिययनिहित्तकुमारा भूसणमणिकिरिणरंजियदियंता । अंतट्ठियससिबिंबा कोमुसंझ व्व रमणीया ||८५३३ || कह लज्जाविवसाए अनिमीलियलोयणं पलोयंतं । इय हिययवियप्पेहिं पागब्भं अब्भसंति व्व ।।८५३४।। इय भुयणसुंदरी सा दिट्ठा कुमरेण हरिसविवसेण । अब्भहियदिन्नकंचणविहडावियमुहससिवडेण ॥। ८५३५ ।। तो विहियविवाहोच्चि (चि) यवेसो जायंमि लग्गपत्थावे । गिण्हए (इ) वहुए पाणिं कुमरो नियपाणिकमले ||८५३६ || पफा (प्फा) रपिहुलदीहरनयणाण फलाई तेहिं दोहिं पि । पत्ताइं सुरूवन्नोन्नदंसणुप्पन्नतोसाण ॥ ८५३७।। तो भुयणसुंदरीए हत्थं हत्थेण गिहिउं कुमरो । चउरंतकयनिवेसं आरोह वेइयाभूमिं ॥ ८५३८।। जा सलिलसेयउग्गयजवंकुरुच्छन्नगुरुसरावेहिं । झंपियपंचमुहेहिं कलसेहिं विहूसिओवंता ।।८५३९।। अह सुहुहुयासणकयपक्खिणं मंडलाई य भमंति । तो अमरसेणराया कन्नादाणं पयच्छेइ ||८५४०|| Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 785 786 787 788 789 790 791 792 793 794 795 796 797 798 799 800 801 802 803 804 805 806 807 808 809 810 811 812 813 814 815 816 817 818 819 820 821 822 823 824 825 826 827 828 829 830 831 832 833 834 835 836 837 838