Book Title: Siribhuyansundarikaha
Author(s): Sinhsuri, Shilchandrasuri
Publisher: Prakrit Text Society Ahmedabad

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Page 786
________________ सिरिभुयणसुंदरीकहा ॥ वज्र्ज्जततूरगंभीरसद्दपामुकपडिरवमिसेण । हरिसेण मलयसेलो जयजयरावं व वियरेइ ।।८५१९।। नाणाविहचारणगण-बंदिसमुग्घुट्ठजयजयासद्दो । जयवारणमारूढो समागओ मंडवदुवारं ॥८५२०॥ तत्थ च्चिय कओवारणसहस्सनारीहिं वेढिओ कुमरो । कयकणयमुसलभिउडीताडणकम्मो विसइ अंतो ।।८५२१ ।। आगच्छंतं दठ्ठे अब्भुइ अमरसेणनरनाहो । दूरपसारियबाहू आलिंग सायरं कुमरं ॥८५२२।। नियए च्चिय उववेसइ राया सीहासणे पणयसारं । पुच्छियकुसलोदतो जयदन्तो भणिउमाढत्तो ||८५२३ ।। 'हरिविक्कम ! एक्केण वि तुमए नणु भूसिया दुवे वंसा । नरमाणिक्कसमेणं नियवंसो वीरवंसो य ॥ ८५२४॥ नियदंसणमेत्तेण वि पयासियाणंतगुणगणग्घविओ । कोत्थुहमणि व्व जाओ एहि पुरिसोत्तिमममि ||८५२५ ।। अहवा थोवं एयं एहि अमरेसरेण वोढव्वो । उज्जोइयभुयणयलो ससि व्व नियउत्तिमंगेण' ||८५२६ ।। इ भणिरे जयदन्ते असेसजोइसियजायसंवाओ । जक्खो भइ सहरिसं 'आसन्नं देव! सुमुहुत्तं' ॥८५२७॥ नरवइणाऽणुन्नाओ पविसइ अब्भितरं हरिकुम (मा) रो । तरुणीहिं नयणकुवलयमालाहिं चच्चियसरीरो ।।८५२८ ।। अह कोउयघरदारे निवारियासेसपरियणपवेसो । कयसमुचियआयारो विसइ हरिसुद्धरोमंचो ।। ८५२९ ।। Jain Education International For Private & Personal Use Only ७७७ *.www.jainelibrary.org

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