Book Title: Siribhuyansundarikaha
Author(s): Sinhsuri, Shilchandrasuri
Publisher: Prakrit Text Society Ahmedabad
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सिरिभुयणसुंदरीकहा ॥
७७५ अणवरयपयाणेहिं पत्तो मलयासमं अमरसेणो । आवासिओ व्व(य) पेच्छइ नियजणणिं तह य नियभइणिं ।।८४९७।। कयजणणिपयणामो पयडियपेम्मुल्लसंतमनु(न्नु)भरो । जक्खराएण भणिओ ‘मा सोयं कुणसु नरनाह ! ॥८४९८॥ सोइज्जंति कहं ते जेहिं असामन्नपुनपब्भारा । देवा वि जाण मन्ने नरिंद! दासत्तणं जंति ॥८४९९।। ता राय! पत्थुयं च्चिय चिंतसु भइणीविवाहसंबंधं । जइ तुह पडिहाइ मणे करेमि ता साहुसंजोयं ।।८५००।। सिरिअज्जियविकमसुओ कुमरो हरिविकुमो त्ति जयपयडो । तस्स तुह लहुयभइणी दिज्जउ तुम्हाण(णु)वत्तीए' ।।८५०१।। तो भणइ अमरसेणो ‘किमेत्थ किर ताय! पुच्छियव्वेण ? । जं तुम्ह मणे रोयइ तं मह नणु सम(म्म)यं चेव' ।।८५०२।। एत्थंतरंमि जक्खो पारंभइ परमहरिसर(रे?)सेण । सिरिभुयणसुंदरीए अणुवमवीवाहसामगिंग ।।८५०३।। दोगाउयप्पमाणं भूमिं काऊण समतलं जक्खो । बंधइ रयणसिलाहिं कक्केयण-नीलमाईहिं ॥८५०४।। तो मणिनिबद्धसुंदरपेढोवरि विरइओ महारम्मो । वीवाहमंडवो विविहरयण-मणि-दारुनिवहेहिं ।।८५०५।। बहुकणयसिहररम्मो नाणामणि-रयणभित्तिचिंचइओ । गरुयत्तरुद्धवसुहो मेरु व्व सुराण कयतोसो ।।८५०६।। चउदारतनिवेसियमणितोरणबद्धधयवडसणाहो । देवंगवत्थविरइयवियाणसंछाइओ रम्मो ।।८५०७॥
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