Book Title: Siribhuyansundarikaha
Author(s): Sinhsuri, Shilchandrasuri
Publisher: Prakrit Text Society Ahmedabad

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Page 788
________________ सिरिभुयणसुंदरीकहा ॥ मयमत्तमयगलाणं अट्ठसहस्से हयाण दहलक्खे । पन्नासं च सहस्से देइ नरिंदो रहवराण ॥८५४१।। तह कामरूयदेसं कसमीरं तह वरिंदुविसयं च । देइ तहा रयणाणं दसद्धवन्नाण रासीओ ॥८५४२॥ आहरणाणं थूहा पुंजा देवंगवत्थनिवहाण । कणयगुरुक्कुरुडा वि य भइणीए अमरसेणो वि ॥८५४३।। तयणंतरं च हरिविकमस्स तप्परियणस्स य करेइ । नियचित्त-वित्तसरिसं उचियविहिं वीरसेणसुओ ।।८५४४।। एवं कयकायव्वो निव्वत्तियसयलउच्छवायारो । मन्नइ सकयत्थं चिय अप्पाणं भइणिदाणेण ||८५४५।। इय विहियदसाहियण्हाण-दाण-सम्माण-भोयणायारा । जा चिटुंति पहिट्ठा विणोयसयसुत्थिया तत्थ ।।८५४६।। ता सहस च्चिय गयणे उच्छलिओ गहिरदुंदुहीसद्दो । तं सोउं उत्ताणियवयणा उढे पलोयंति ।।८५४७॥ अह खणमेत्तेणं चिय गयणं बहुदेव-दाणवगणेहिं । संछन्नमसेसं चिय जयजयसद भणंतेहिं ।।८५४८।। सुव्वइ सवणिंदियसुंदरत्तअवहरियकडयजणमणसो । बहुकिन्नरगणविहिओ गयणे वरगेयज्झ(झ)[का]रो ।।८५४९।। सब्भूयगुण(णु)कित्तणविहावणुप्पन्नहरिसरोमंचो । सुव्वंति संथुणंता परमत्थथुईहिं सुरनिवहा ।।८५५०।। इय कोऊहलतरलियमणनयणा दिट्ठदेवसंघाया । 'किं किं' ति कयवियप्पा नरवइणो जाव अच्छंति ||८५५१।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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