Book Title: Siribhuyansundarikaha
Author(s): Sinhsuri, Shilchandrasuri
Publisher: Prakrit Text Society Ahmedabad

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Page 798
________________ सिरिभुयणसुंदरीकहा ॥ ७८९ मोत्तूण पायमूले 'सत्थि' भणिऊण कंद-फलमाई । संभासिया य गुरुणा उचियट्ठाणेसु उवविट्ठा ||८६५१।। तो भणइ वीरसेणो 'भो ! भो ! निरवज्जचरणनिरयाण । कप्पंति न साहूणं सावज्जफलाई एयाइं ॥८६५२।। जे च्चेय धम्महेऊ तुम्हाणं आगमंमि परिकहिया । ते च्चेय जिणिंदसमए पावनिमित्तं समुवइट्ठा' ॥८६५३॥ तो कुलवइणा भणियं 'कहमेयं अम्ह धम्महेऊ जे । ते जिणधम्मे भणिया पावनिमित्तं ? मह कह(हे)ह' ॥८६५४।। तो केवलिणा भणियं 'सम्म निसुणेह तुम्ह साहेमि । सम्मन्नाणसमेयं साहइ धम्मं अणुट्ठाणं ॥८६५५।। जं पुण नाणविहीणं तमरन्नभमंतअंधनरसरिसं । पेरंताणत्थफलं अफलकिलेसावहं नवरं ॥८६५६।। नज्जइ नाणबलेणं जीवाजीवाइतत्तपरमत्थं । जं जीवरक्खणपरं तमणुट्ठाणं फलं देइ ॥८६५७।। छव्विहजीवनिकाया जाव न नाया जिणागमबलेण । ता कह ताणं रक्खं जीवाणं कुणइ अन्नाणी ? ।।८६५८।। एसा पुढवी जीवो तं तुब्भे खणह सोयबुद्धीए । कह एगिदियजीवे होइ वहंतस्स किर धम्मो ? ||८६५९।। सलिलं च होइ जीवो तेण तिकालं च कुणह पहाणं पि । संझाअग्घुक्खिवणं सुरच्चणं धम्मबुद्धीए ॥८६६०।। अग्गी वि होइ जीवो तत्थ तिसंझासु हुणह सचि(च्चि)त्ते । तिल-जव-वीहियमाई परमत्थविवेयपरिहीणा ।।८६६१।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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