Book Title: Siribhuyansundarikaha
Author(s): Sinhsuri, Shilchandrasuri
Publisher: Prakrit Text Society Ahmedabad
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७९१
सिरिभुयणसुंदरीकहा ॥
अन्नं वाहिसरूवं अन्नं चिय ओसहं निजुज्जंति । न कुणइ वाहिछेयं तह य कुधम्मेहि कम्मखयं ।।८६७३।। ता तुम्ह अणुग्गहटुं परमोवायं च मोक्खसोखस्स । साहेमि परमधम्मं असेसकम्मक्खयसमत्थं' ।।८६७४।। तो कहइ समणधम्मं खंताईयं सवित्थरं वीरो । तं सोऊणं सव्वे संविग्गा तावसा जाया ।।८६७५।। तो चंदसिरीसहिया कुलवइपमुहा विसुद्धपरिणामा । सकलत्ता सावच्चा सव्वे दिक्खं पव्व(व)ज्जंति ||८६७६।। अन्ने वि तत्थ बहवे हरिविकूम-अमरसेणकडयंमि । पडिबुद्धा मुणिपासे पव्वज्जं अह पव्व(व)ज्जति ।।८६७७।। अउरुव्वदिक्खियाणं तावसमाईण पालणनिमित्तं । आयरियपए ठावइ बंधुयत्तं महावीरो ।।८६७८।। तो अमरसेण-हरिविकुमेहिं नमिऊण पत्थिओ भयवं । 'नियदंसणेण पुणरवि अम्ह पसायं करेज्जासु' ।।८६७९।। इय भणिओ च्चिय भयवं देवासुर-खयर-किन्नरसमेओ । उप्पइओ गयणेणं न याणिओ कत्थइ गओ त्ति ।।८६८०।। आपुच्छिऊण जक्खं अत्थपयाणेण पूरिया दो वि । रायाणो अणुन्नाया ससेन्नसहिया य संचलिया ।।८६८१।। तो भुयणसुंदरि च्चिय(री वि य) चिरपरिचियसहियणं च पुच्छेइ । संभासइ जक्खजणं पुणो पुणो सहियणं भणइ ।।८६८२।। 'मा वीसरह सहीओ! दूरीहूयाओ संपयं मज्झ । घणनेहनिब्भरमणा पुणो पुणो भरइ अच्छीणि ।।८६८३।।
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