Book Title: Siribhuyansundarikaha
Author(s): Sinhsuri, Shilchandrasuri
Publisher: Prakrit Text Society Ahmedabad

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Page 785
________________ ७७६ सिरिभुयणसुंदरीकहा ॥ झुल्लंतचडुलचमरो थंभंतरबद्धमोत्तिओलो(उल्लोओ?) । उत्तुंगवेइयातलसिंहासणसोहिओ रम्मो ।।८५०८।। पसरंतजक्खविलयाविलासपारद्धमंगलायारो । सुव्वंतवेणु-वीणाविमीसकलगीयझंकारो ॥८५०९।। बहुतरमिलंतसुर-नरअंतोसंचाररुद्धवित्थारो । बहुकज्जवावडुज्जयहल्लप्फलजक्खपरिवारो ॥८५१०॥ इय अमरसेणगुरुतरभवणदुवारंमि जक्खराएण । रमणीयत्तणसंजणियविम्हओ मंडवो विहिओ ॥८५११।। तो अमरसेण-हरिविकुमाण कडएसु जायआणंदो । सविसेसुज्जलभूसणनेवत्थो होइ परिवारो ।।८५१२।। एत्थंतरंमि जक्खो अवहिनाणेण मुणियसुहलग्गो । पुण भणइ अमरसेणं 'नरिंद! नियडीहुयं लग्गं' ।।८५१३।। तो भणइ अमरसेणो ‘तुरियं पेसह वरस्स पासंमि । कं पि पहाणं पुरिसं परिणयणावाहणनिमित्तं' ।।८५१४।। तो बंधुयत्तपुत्तो जयदंतो नाम पेसिओ सो वि । गंतूण भणइ पणओ 'कुमार! तुरियं पयट्टेह' ||८५१५।। एत्थंतरे कुमारो निव्वत्तियण्हवणयाइवावारो । उज्जलनिवसियवत्थो हरियंदणकयसमालहणो ||८५१६॥ . सिरिमउड-कन्नकुंडल-वच्छत्थलहार-कंकणाईहिं । आहरणसमूहेहिं विहूसियंगो पयइरुइरो ||८५१७।। कयवुड्डाजणबहुविहकोउयमंगल्लनियकुलायारो । गायंतविविहनारीगेयरवापूरियदियंतो ।।८५१८॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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