Book Title: Siribhuyansundarikaha
Author(s): Sinhsuri, Shilchandrasuri
Publisher: Prakrit Text Society Ahmedabad
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सिरिभुयणसुंदरीकहा ॥ ठविऊण सिरि(रे) हिट्ठो वायइ हरिविक्कमो सयं लेहं । 'सत्थि अउज्झपुरीओ रायाऽजियविकूमो कुसली ॥८४८६।। दुग्गंमि अलंघउरे सेणावइवैरसीहपरियरियं । हरिविकूमजुयरायं दिन्नासीसो समाइसइ ।।८४८७।। एत्थेव मलयसेले धूया सिरिवीरसेणरायस्स । केणाऽवि उवाएणं परिणेयव्वा तए तुरियं ।।८४८८।। तं परिणिऊण कन्नं दुग्गे मोत्तूण वैरसीहं च । तुमए सकलत्तेणं एत्थागमणं करेयव्वं' ।।८४८९।। अणुकूलं लेहत्थं कुमरो परिभाविऊण साणंदो । विवाहगमणकज्जे उ देइ लोयाण आएसं ।।८४९०।। संचलिओ नयराओ पसत्थदियहे अ(5)णुकूलमण-सउणो । बहुसेन्नसंपरिवुडो पत्तो मलयासमं कुमरो ||८४९१।। समवियडभूमिभाए आवासइ रुद्धवसुहवित्थारो । आणंदिओ सहरिसं कुलवइणा तावसेहिं च ।।८४९२।। एवं च ताव एयं इओ य चंपाए वीरसेणसुओ । सिरिअमरसेणराया चंदसिरीगब्भसंभूओ ।।८४९३।। सो निसि जणणिं हरियं नाउं संजायसोयसंतावो । चंदसिरिपेसिएणं आसासिओ मलयमेहेण ॥८४९४।। संजायसत्थचित्तो नियभय(इ)णि भुयणसुंदरिं दटुं । अच्छइ उच्छुक्कमणो चिंतंतो बहुविहोवाए ||८४९५।। अह अन्नदिणे नियजणणि-भइणिदंसणपवड्डिउक्कंठो । संचलइ अमरसेणो नियसेणारुद्धमहिवीढो ।।८४९६।।
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