Book Title: Siribhuyansundarikaha
Author(s): Sinhsuri, Shilchandrasuri
Publisher: Prakrit Text Society Ahmedabad
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७७२
सिरिभुयणसुंदरीकहा ॥ तं नत्थि जं न लब्भइ भुयण लब्धं पिकेण वि एण । अणुकूलत्तमिस्स ओ ( उ ) मन्त्रे देवाण वि दुर्लभं ||८४६४ || सव्वेसिं पुन्नाणं ताइं च्चिय हुंति गरुयपुन्नाई । जेहिं हरिविक्रममणं ममंमि एकग्गयं नीयं ॥ ८४६५।। लब्भइ सुकुलुप्पत्ती रूवं गुणपयरिसो विभूईओ । वल्लहजणाणुराओ अप्पंमि सुदुल्लाहो होइ' ||८४६६॥ इय जाव कुमरविसए सा चिंतइ भुयणसुंदरी विविहं । ताव पहाया रयणी अह पढियं मागहनरेहिं ||८४६७ || 'नट्ठा नरिंद ! रयणी मोहियभुयणा पसंतवावारा । मुच्छ व्व कालपरिणइ जणचेयन्ना पहाभिहाया ( हया ) ||८४६८ ।। मोत्तुं गिरिकंदरगुरुगुहासु लीणं नरिंद! तमपडलं । सूरपयावाभिहयं तुह रिउवंद्र पिव पणट्टं ॥ ८४६९|| तुह सूरस्स व अंतरियसयलतेयंसिमंडलस्सेह । उयए अरिरिक्खगणो विहडइ खज्जोयनिवहो व्व ||८४७० ॥ पढमुग्गमंतरेहामित्तं नवमित्तमंडलं सहइ । तव्वेलरविसमागयपुव्ववहूए नहपयं व्व ॥ ८४७१ ।। अदुग्गयं विराय रविबिंबं देव! अरुणसच्छायं । कयजावयनवरायं संज्झवहूए व अहरदलं ॥८४७२ ॥ तुह देव! सूरबिंबं करकिरणसहस्सदीवपजलंतं । उत्तारइ संझवहू आरत्तियकणयथालं व' ||८४७३॥ इय मंद- महुर - मंगलमागहजणविहियकलयलरवेण । सहस त्ति संपबुद्धी पल्लकं मुयइ नरनाहो ||८४७४ ।।
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