Book Title: Siribhuyansundarikaha
Author(s): Sinhsuri, Shilchandrasuri
Publisher: Prakrit Text Society Ahmedabad

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Page 779
________________ ७७० हरिविकुमेण भणियं 'दूरमविन्नायमहसरूवाए । अप्पा न केवलं चिय भुयणं पि[य] संसए छूढं ||८४४२ || जं हियए वि न सम्मा (मा) इ जं च अवरोप्परेण कयपीडं । कह तं थणवट्टं पिव कज्जं हियए तए धरियं ? ||८४४३ ॥ बहुसत्थपंडियाए पयइवियड्ढाए चउरचित्ता । सविवेयाए न तए मह हिययं जाणियं देवि !' ||८४४४ || तो भइ रायधूया 'पुव्युत्तगुणे नरिंद! नारीण । पियपिम्ममोहियाणं खणेण सव्वे वि नासंति ||८४४५ ॥ अमयमया अब्भत्था विमला गुरुदुक्खपडणजज्जरिया । करओवल व्व सुगुणा निबिडा वि न किं विलिज्जति ? ||८४४६ || किं तु मह कोऊ ( उ ) हल्लं साहह किं एत्थ आगया तुभे ? | अमणुन्ने बीभच्छे सुलह अवाए मसाणंमि ?' ।।८४४७।। कुमरेण नियवियप्पियपयडणसंजायगरुयलज्जेण । भणियं 'एमेव इहागओ म्हि लीलाविहारेण' ||८४४८ || एत्यंतरे नहाओ 'जयइ कुमारो' त्ति परियणसमेओ । देतो विविहासीसाओ आगओ मलयमेो वि ||८४४९ ॥ 'जयहि नियवंसभूसण! जय जय नियसत्तितुलियतेलोक्क ! | जय हरिविकमनरनाह! नंद आचंदसूरं जा' ||८४५० ।। इय सो दिन्नासीसो समागओ कुमर-कुमरिपासंमि । पुच्छियकुसलोदता साणंदा एंति नियट्ठा (ठा ) णं ॥ ८४५१ ॥ तो भइ जक्खराया 'कुमार ! उववासपीडियसरीरो । संजायजागरो वि य खणमेत्तं ठासु सेज्जाए' ||८४५२ ॥ खंता ॥ १. करकोपला इव Jain Education International सिरिभुयणसुंदरीकहा For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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