Book Title: Siribhuyansundarikaha
Author(s): Sinhsuri, Shilchandrasuri
Publisher: Prakrit Text Society Ahmedabad
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७६९
सिरिभुयणसुंदरीकहा ॥
नियपिढे घेल्लेउं कुमरो तं बालियं पयइवीरो । धरिउं जडासु पाडइ पच्छा बाहूहिं बंधेइ ।।८४३१।। तह चेव चंडरुद्दो बद्धो अह ताण दोहिं(ण्ह) वि सरोसं । लिंगी होइ अवज्झो त्ति नासियं झत्ति छिंदेइ ॥८४३२।। पसरंततिसूलानलजालाउज्जोइयंमि भवर्णमि । कुमर-कुमरीण जायं अन्नोन्नं पच्चभिन्नाणं ।।८४३३।। हरिविकुमो त्ति बाला कुमरो वि य भुयणसुंदरि त्ति इमा । अन्नोन्ननिच्छएणं हरिसेणंगे न मायंति ||८४३४।। जो आसि भयवसेणं पुरा पकंपो नरिंदधूयाए । सो कुमरदसणेणं तहट्ठिओ वासणाभिन्नो ||८४३५॥ दूरासंभवदंसणवसपसरियविम्हयाइं जुगवं पि । अहिणंदति सहरिसं नियनियपुन्नाइं अन्नोन्नं ।।८४३६।। लाभो अलंघपुरस्स वि जोऽणिट्ठो आसि तीए मरणेण । देवीए दंसणेणं तं चिय कुमरो पसंसेइ ॥८४३७।। किं बहुणा ? ताण अन्नोन्नदंसणुप्पन्नहरिसाण । तं किं पि सुहं जायं जस्सऽत्थि न तिहुयणे उवमा ।।८४३८।। अन्नोन्नविरहियाणं दुहनिम्माओ व्व जो भवो आसि । सो चेव संजुयाणं सुहनिम्माओ व्व संजाओ ।।८४३९।। अह भणइ रायपुत्तो ‘देवि! कहं पाविया सि एएण ?' । सविलक्खा य सलज्जा अहोमुही भणइ रायसुया ॥८४४०।। 'जाणामि एत्तियं चिय जमहं मंजूससंठिया हुंती । एएण तओ कहमवि कड्डीया एत्थ आणीया' ।।८४४१।।
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