Book Title: Siribhuyansundarikaha
Author(s): Sinhsuri, Shilchandrasuri
Publisher: Prakrit Text Society Ahmedabad

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Page 765
________________ सिरिभुयणसुंदरीकहा ॥ तो मन्नह पहुमेयं चयह विरोहं अतुल्लसामत्थं । पणमह लच्छिनिवासं हरिविकुमदेवपयकमलं' ।।८२८८।। इय एवं ते भणिया सव्वे वि मणंमि कयचमक्कारा । पणमंति पलोयंता पयावमसमं कुमारस्स ॥८२८९।। एत्थंतरंमि नयरे घोसिज्जइ वियडरायमग्गेसु । रत्था-चउक्क-चच्चर-सिंगाडय-तियपयपहेसु ॥८२९०।। 'हरिविकुमस्स आणा जो कुणइ भयं व दुत्थ(?)संकं व । निच्चं पमुइयचित्ता अच्छह परमेण सोक्खेण ||८२९१।। कुणह पुरहट्टसोहं परिहह पंगुरह विलसह जहिच्छं । उग्घाडइ(ह) सव्वाइं पओलिदाराई वेगेण ॥८२९२ ।। हरिविकुमआगमणे नियनियगेहेसु उच्छवं कुणह । नच्चह वद्धावणयं आणंदं कुणह पाहिट्ठा' ॥८२९३।। हरिविकुमो वि तुरियं सेणाहिववैरिसीहमाणेइ । संथइ नयरपहाणा आवज्जइ लोयहिययाइं ।।८२९४।। आणावइ नियसेन्नं जं पुट्विं मलयसेलनियडंमि । आवासियं जओ किर अवहरिओ मलयमेहेण ||८२९५।। नियसेन्नस्स नरिंदं महाबलं अप्पिऊण सकलत्तं । सपरिग्गहं सकोसं सहत्थि-रह-तुरय-पाइक्वं ।।८२९६।। पट्ठवइ अजियविकुमरायस्स समीवमुचियकयरक्खो । भणइ य तं सप्पणयं राया नीइं अणुसरंतो ||८२९७।। ‘वच्चसु अकयवियप्पो तायसमीवं महाबलनरिंद ! । मह उण न अत्थि सत्ती गहण-पयाणे पीवसस्स' ।।८२९८ ।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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