Book Title: Siribhuyansundarikaha
Author(s): Sinhsuri, Shilchandrasuri
Publisher: Prakrit Text Society Ahmedabad

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Page 763
________________ सिरिभुयणसुंदरीकहा ॥ लोहग्गलदेवेणं अहवा मह साहियं पुरा चेव । अहमेक्कस्स असक्को जं किर हरिविकुमस्स परं' ॥८२६६।। इय चिंतंतो सहसा पलयघणघोसघोरसद्देण । हरिविकुमकुमरेण सकोवमिव हक्किओ वेरी ।।८२६७।। ‘रे रे ! नाम महाबल ! पयडसु एण्हि नियं बलं समरे । आयड्ढसु करवालं जइ अत्थि मणे अवटुंभो' ।।८२६८।। तो हरिविकूमहक्कासंखुद्धमणस्स तस्स नरवइणो । विहलंघलस्स सहसा गलियं हत्थाओ करवालं ॥८२६९।। ईसीसि विहसिऊणं भणियं कुमरेण 'तुह बलं दिटुं । मा भाहि तुज्झ अभयं पहरामि न गलियखग्गस्स ।।८२७०।। पेच्छामि कोउएणं सो वि कहिं वाणमंतरो तुज्झ ? । मन्ने जह तुज्झ बलं तस्स वि एयारिसं होही' ।।८२७१।। भणियं महाबलेणं 'जहत्थनामो तुमं चिय जयंमि । जस्स हरिणा समाणो जयपयडो विक्कमो अत्थि ||८२७२।। नामाई मारिसाणं अन्नत्थ जहा तहा पयट्टतु । तुह विसए वि नरेसर ! न लहंति जहत्थयं निययं ।।८२७३॥ अन्नत्थ रिउंमि पराजओ वि मह होइ दूसणं देव! । तुह विसएणं सो च्चिय संजाओ भूसणं मज्झ ।।८२७४॥ सकयत्थं चिय मन्ने अप्पाणं देव ! एत्तिएणेव । दुज्जेओ अन्नेसिं तुमए विजिओ सयं जमहं ॥८२७५॥ ता एसो हं भिच्चो एयं दुग्गं परिग्गहो एसो । कोसो विसय-कलत्ताइं च सव्वं पि गेण्हेसु ||८२७६।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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