Book Title: Siribhuyansundarikaha
Author(s): Sinhsuri, Shilchandrasuri
Publisher: Prakrit Text Society Ahmedabad

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Page 769
________________ ७६० सिरिभुयणसुंदरीकहा ॥ तुह वयणपवणपडिपेल्लिओ व्व दूरं रओ व्व ओसरिओ । खेओ मह मणरयणे सहावविमलंमि नरनाह !' ।।८३३२।। एत्थंतरंमि मित्तो हरिविकुमकज्जकरणबुद्धीए । देवीगवेसणत्थं पच्छिमजलहिंमि पविसेइ ।।८३३३।। वीरधूएक्करत्तं नाउं हरिविकुमं व वरुणदिसा । संझामिसेण मन्ने ईसारायं व्व उव्वहइ ॥८३३४।। सिरिभुयणसुंदरीगुरुदुहे व अंतरियसयलजियलोए । मज्जइ तिमिरे भुयणं संछन्नासेसउज्जोयं ।।८३३५।। उवसंतसव्वचेलू गुरुनिदंतरियलोयचेयन्नं ।। वीरसुयादुक्खेण व मुच्छामूढं व भुयणयलं ।।८३३६।। एवंविहंमि समए कयगुरु-जिणपायवंदणो कुमरो । अत्थाणे उवविठ्ठो सामंतसहस्ससंकिन्नो ।।८३३७।। तत्थऽच्छिऊण य खणं उचियावसरे विसज्जियत्थाणो । वच्चइ सेज्जाभवणं परिमियपरिवारपरियरिओ ।।८३३८।। तमि गओ परिवारं विसज्जए कयपसायसंमाणं । तो सेज्जाए उवन्नो कोमलतूलीसणाहाए ॥८३३९।। अह सो विचित्तसेज्जाहरंमि चिंतेइ बहुविहोवाए । 'केणेह उवाएणं मह दइयादसणं होही ? ||८३४०।। अहवा जाव न अप्पा परिखिप्पइ संसयंमि मरणंते । ताव न वंछियकज्जं साहसहियया पसाहति ||८३४१।। साहस-सत्तिधणाणं दो चेव गईओ होंति धीराणं । तिणतुलियसजीयाणं मरणं व सकज्जकरणं व ।।८३४२ ।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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