Book Title: Siribhuyansundarikaha
Author(s): Sinhsuri, Shilchandrasuri
Publisher: Prakrit Text Society Ahmedabad

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Page 775
________________ ७६६ सिरिभुयणसुंदरीकहा ॥ हरिविकुमो वि लोहग्गलस्स जो वेरिओ तयं सरणं । जं पडिवन्ना तेणेव तुज्झ मरणं समावडियं ।।८३९८।। जइ पुण भयवंतं भैरवं च लोहग्गलं च सुमरेसि । ता तुज्झ तेहिं विहियं अज्ज हुन्तं परित्ताणं ।।८३९९।। अज्ज वि न किं पि नटुं भैरवदेवं सरेसु परमप्पं । लोहग्गलं च जेणं तुह रक्खा होइ मरणंमि' ।।८४००।। तो भणइ कन्नया सा 'कावालिय! किं व पलवसि अज्जुत्तं ? । मरणंते वि [य] पत्ते न अन्नदेवो मणे मज्झ ।।८४०१।। मरणं वा जीवं वा नियकम्मवसेण होइ पाणीण । देवो न किं(कं) पि मारइ न मरंतं अहव रक्खेइ ।।८४०२।। ता सव्वहा पसंतो पसंतसंसारसयलवावारो । सो च्चिय ससिप्पहजिणो भवे भवे होउ मह सरणं ॥८४०३।। निहणइ सव्वभयाइं अवमच्चु हणइ समइ विग्घायं । सुमरिज्जंतो हियए नवका(का)रो नत्थि संदेहो ॥८४०४।। जं सोऊण कुमारं तणं व लोहग्गलाइणो हुंति । सो मह न परं इहइं सरणं अन्नेसु वि भवेसु' ।।८४०५॥ इय कुमरो सोऊणं जिण-नवकारेसु निच्छि(च्छ)यं तिस्सा । अब्भहियजायपक्खो मेरुसमं मुणइ तं कन्नं ॥८४०६।। 'करुणाट्ठाणं नारि त्ति जीए किर रक्खणे पयट्टो म्हि । नियजीयसंसए वि हु संपइ तं कह न रक्खिस्सं ? ।।८४०७।। मं सरणं पडिवन्ना एत्थ उ किं कारणं हवे ? जम्हा । परियाणेमि न एयं तुच्छप्पईवप्पहे भवणे ।।८४०८।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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