Book Title: Siribhuyansundarikaha
Author(s): Sinhsuri, Shilchandrasuri
Publisher: Prakrit Text Society Ahmedabad
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७६४
सिरिभुयणसुंदरीकहा ॥ तो भणइ गुरू ‘किं चंडरुद्द! लद्धं तहाविहिं(हं) किं पि ? । बहुलक्खणसंपन्नं नरं व नारिं भमंतेण ?' ||८३७६।। सो भणइ ‘सुछ लद्धं संभवइ न जं तिलोयमज्झे वि । दिव्वं कन्नारयणं नियरूवविणिज्जियतिलोयं' ।।८३७७।। अह चिंतेइ कुमारो ‘अच्छरियमिमस्स वरतिसूलस्स । जं दठूण सलक्खणपुरिसं पज्जलइ कंपेइ ।।८३७८।। का एसा वरनारी होही घणकसिणकेसपब्भारा ? । निबिडे तमंधयारे पच्चभिजाणामि कह एयं ?'||८३७९।। तो भणइ सूलपाणी ‘नियच्छ रे चंडरुद्द! इह पुरिसं । सव्वंगलक्खणधरं निवेइयं मह तिसूलेण' ।।८३८०।। तो भणइ चंडरुहो ‘भयवं! नेयारिसो भवे मंतो । जं चिय अप्पायत्तं तं चिय पढमं वसे कुणह ।।८३८१।। सिद्धप्पाए कज्जे कालविलंबो करेइ विग्घायं । तम्हा सिद्धं मोत्तुं असिद्धकज्जं न कायव्वं' ।।८३८२।। तो भणइ गुरू ‘एवं, मारसु वेगेण कन्नयं एयं । मा को वि पुण इमीए काही परिपंथगो विग्घं' ।।८३८३।। तो केसे घेत्तूणं भैरवभवणंमि नेइ तं नारिं । करुणरवं विलवंति भएण कंपंतसव्वंगिं ।।८३८४।। दक्खत्तणेण कुमरो पढमं पविसेइ भैरवं भवणं । थंभंतरिओ चिट्ठइ निग्घिणचेझैं पलोयंतो ||८३८५।। तो तं स(सु)कुमारंगिं सललियलायन्नरूवविन्नासं । केसेसु कड्डिऊणं दड त्ति सो खिवइ धरणीए ।।८३८६।।
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