Book Title: Siribhuyansundarikaha
Author(s): Sinhsuri, Shilchandrasuri
Publisher: Prakrit Text Society Ahmedabad

View full book text
Previous | Next

Page 772
________________ सिरिभुयणसुंदरीकहा ॥ इयएवमाइवइयरनिरंतरं पिउवणं नियच्छंतो । .. पत्तो कमेण कुमरो अइभीमं भइरवाययणं ।।८३६५।। जा जाइ तत्थ निहुयं ता पेच्छइ सूलपाणिमुवविटुं । . कयजोगपट्टपज्ज कबंधज्झा(झा)णासनासीनं ।।८३६६।। सन्निहिठवियतिसूलं परिचारयपुरिससंजुयं भीमं । तं दद्रूण कुमारो थंभंतरिओ ठिओ नियइ ।।८३६७।। जा तं एकग्गमणो कुमरो किर नियइ ताव पजलंतं । पुरओ तस्स अयंडे तिसूलमह कंपियमच्छि(छि)कं ।।८३६८।। तो भणइ सूलपाणी सन्निहियनरं 'नियच्छ रे पुत्त ! । पजलंतं कंपंतं मज्झ तिसूलं महाइसयं' ॥८३६९।। भणइ नरो ‘किं एयं कंपइ पज्जलइ ? कहसु मह भयवं !' । सो भणइ 'को वि चिट्ठइ सलक्खणो इत्थ वरपुरिसो ||८३७०।। गेण्हसु तस्स कवालं जेणं तुह हुंति सव्वसिद्धीओ । एयं मज्झ निवेयइ तिसूलमेवं पकंपंतं ।।८३७१।। एमेव भमइ भुयणं कवालकज्जमि चंडरोदो सो । ठाणठिएहि वि लब्भइ निडालवटुंमि जं लि[हि]यं' ||८३७२।। परिचारएण भणियं 'न को वि इह तव्विहो नरो अत्थि' । सो भणइ 'किं विकंथसि(विकत्थसि?) न अन्नहा भासियं मज्झ' ।।८३७३।। एत्थंतरंमि सहसा नहाओ डमडमियडमरुयकरग्गो । दिढबद्धजडाजूडो कयभूइविलेवणसरीरो ।।८३७४।। खंद्धट्ठियखटुंगो हठे(ढे)ण धरिउं सिरग्ग-केसेसु । वरतरुणिमुव्वहंतो ओयरिओ गुरुसमीवंमि ।।८३७५।। १. विकप्पसि(?), खं.ता. टि. ।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 770 771 772 773 774 775 776 777 778 779 780 781 782 783 784 785 786 787 788 789 790 791 792 793 794 795 796 797 798 799 800 801 802 803 804 805 806 807 808 809 810 811 812 813 814 815 816 817 818 819 820 821 822 823 824 825 826 827 828 829 830 831 832 833 834 835 836 837 838