Book Title: Siribhuyansundarikaha
Author(s): Sinhsuri, Shilchandrasuri
Publisher: Prakrit Text Society Ahmedabad
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सिरिभुयणसुंदरीकहा ॥ ता राय ! अहं दूओ तुज्झ समीवंमि पेसिओ तेण । हरिविकुमेण एवं संदिटुं सुणसु एगमणो ।।८२४४।। ‘चयसु सुहडत्तगव्वं मन्नसु मह तायसंतियं सेवं ।। अच्छसु जहासुहेणं भुजंतो राय ! रायसिरिं ।।८२४५।। अहवा न तायसेवं मनसि ता होसु समु(म्मु)हो समरे । कहिया दोन्नि वि पक्खा जं रुच्चइ तं समायरसु" ।।८२४६।। इय जक्खरायभणिए निद्दारुणघुम्मिरच्छिसयवत्तो । आमोडियंगुवंगो उट्ठइ सयणाओ नरनाहो ।।८२४७।। पभणइ महाबलो ‘को तुमं सि ? हरिविकूमो वि को एत्थ ? | ताओ वि तस्स को वा ? सो सेवं जस्स कारवई ? ।।८२४८।। सेव च्चिय का भन्नइ ? सा दूय ! कहं च कीरइ नरेण ? । आजम्मो(म्मा)वहि तिस्सा सरूवमवि अम्ह अउरुव्वं ।।८२४९।। जइ सो च्चिय तुह कुमरो पढमं सेवासरूवमुवइसइ । ता हं तेण कमेणं सेवाभासं करिस्सामि' ।।८२५०।। तो भणइ जक्खराया 'को सि तुमं ? - मं भणेसि तं जुत्तं । हरिविकुमो त्ति को वा ? तमणुचियं जंपियं तुमए ।।८२५१।। संकोडियंगुवंगो छूढो गब्भे व जेण दुग्गंमि । कह तं अलंघसत्तिं कम्मविवायं व नो मुणसि ? ।।८२५२ ।। अहवा को तुह दोसो ? अनायपरमत्थवत्थुरूवस्स । अन्नाणकयं एवं सव्वं च्चिय तुज्झ ववहरणं ।।८२५३।। नियबुद्धिकप्पियं खलु जो गव्वं वहइ अप्पविसयंमि । सो पावइ उवहासं अप्पाणं संसए ठवइ ।।८२५४।।
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