Book Title: Siribhuyansundarikaha
Author(s): Sinhsuri, Shilchandrasuri
Publisher: Prakrit Text Society Ahmedabad

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Page 759
________________ ७५० सिरिभुयणसुंदरीकहा ॥ उत्तुंगमहट्टालयसिहरग्गनिबद्धतोरणपडायं । जग्गंतजामइल्लयसहस्सकोलाहलदुलंघं ।।८२२२।। अंतोगरुयनिवेसियजंतनिखिप्पंतओ(उ)वलसंघायं । मुक्कग्गितेल्लजालाजलंतगयणंगणाभोयं ॥८२२३।। अणवरयभमिरभामरिनरहक्कासावहाणकयसुहडं । ठाणट्ठाणुक्कुरुडियबहुपहरणपुंजसंकिन्नं ||८२२४।। परसेन्नभयसमुब्भडअंतोकयसावहाणचउरंगं । खंडीपडणभएणं पउणीकयदारुसिप्पिगणं ।।८२२५।। परसेन्नप्पडणत्थं खाणिनिहिप्पंतगुविलजलियगिंग । इयमाइ कयपयत्तं नियइ कुमारो अलंघपुरं ।।८२२६।। तो सहसा संपत्तो नवभूमियकणयतुंगपासायं । अट्ठावयं व सेलं महाबलस्सालयं कुमरो ।।८२२७।। ठाणट्ठाणपरिट्ठियठाणंतरवंठकलयलगहीरं । सइ सावहाणसेवयसहस्सपरिवेढियउवंतं ।।८२२८।। परिवियडगुडियबहुकरडिघडाघडियचउदिसावेढं । पक्खरियतुरयसाहणसहस्सपरिवेढियदियंतं ।।८२२९।। सारहिसंचारियसंदणोहसंघट्टरुद्धवित्थारं । पसरंतफारफारक्क-कुंत-धाणुक्कपरिखित्तं ।।८२३०।। इय तं पि कयपयत्तं कयजक्खपयत्तमणिविमाणत्थो । पेच्छइ कुमरो भवणं अणंतजणरुद्धपहदारं ।।८२३१।। तो भणइ जक्खराया 'जहत्थनामं कुमार ! दुग्गमिणं । वेरीहिं न लंघिज्जई वरिससहस्सोवउत्तेहिं ।।८२३२॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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