Book Title: Siribhuyansundarikaha
Author(s): Sinhsuri, Shilchandrasuri
Publisher: Prakrit Text Society Ahmedabad
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सिरिभुयणसुंदरीकहा ॥
इय जाव अलंघउरे अच्छइ हरिविकुमो सदेसे व्व । रज्जसिरिं भुंजतो वीरसुयाविरहखीणंगो ।।८२९९॥ ता सहसा जक्खपरिग्गहमि एगो समागओ जक्खो । सो भुयणसुंदरीए साहइ सयलं फि वुत्तंतं ॥८३००।। तं सोऊण कुमारो ‘हा! ह' त्ति तिसूलघायभिन्नो व्व । जक्खस्स विरसवयणं अह मोहं जाइ निच्चेट्ठो ॥८३०१।। तो जक्खरायविरइयसीयलकिरियाहिं लद्धचेयन्नो । पाययनरो व्व विलवइ अजहत्थलुलंततणुकेसो ।।८३०२।। 'हा देवि! भुयणसुंदरि! सकीयसुंदेरि(र)विजियतेलोक्के! | कह निक्किवस्स मह कारणेण अप्पा तए वहिओ ? ||८३०३।। तुमए भुयणमसेसं विभूसियं जुयइरयणभूयाए । तं चिय तए विहीणं न सोहए छिन्नसीसं व्व ॥८३०४।। कह देवि! मह निमित्तं तुह मरणसमुब्भवं महापावं । वरिससहस्सकएहिं वि घोरतवेहिं वि मह समिही ? ||८३०५।। हा! भुयणसुंदरि! तए तहा कओऽहं जहा तिलोए वि । अद(द्द)ट्ठव्वो जाओ अगेज्झनामो य न हु भंती ।।८३०६।। जं पुट्विं मह भुयणं हुतं गुणसवणदिन्ननियकन्नं । तं मह नामे निसुए निबिडयरं झंपिही कन्ने ||८३०७।। विस्सासघाइणो जे गुरुपड(डि)णीया य जे कयग्घा य । नारी-बालवहा वि य हुंति असोयव्वनामा ते ।।८३०८।। तं अन्नभवे पावं मए कयं जस्स फलमिमं जायं । एएण उ जं होही पुरओ तमहं न जाणामि ।।८३०९।।
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