Book Title: Siribhuyansundarikaha
Author(s): Sinhsuri, Shilchandrasuri
Publisher: Prakrit Text Society Ahmedabad
View full book text
________________
सिरिभुयणसुंदरीकहा ॥
७५३
ता किं बहुणा ? नरवर ! सो च्चिय हरिविकुमो पयडसत्ती । नियतायं दंसिस्सइ सेवा किर जस्स कायव्वा ||८२५५ ।। सेवारूवं सो च्चिय पयडेही तुज्झ केण वि नएण । अज्जेव न उण दूरे किं राय ! अईव उच्छुको ||८२५६ ।। कह तं चवइ विसिट्ठी निव्वहइ न जो पुरो भणतस्स ? । अजहत्थवाइणो पुण पुरिसा पावंति हलुयत्तं ॥ ८२५७ ॥ दट्ठव्वो सि महाबल ! केत्तियदियहेहिं रायरायस्स । पुरओ तदेक्कचित्तो सेवंजलिवावडकरग्गो' ||८२५८।। तो जक्खवयणपसरियअमरिसवसफुरफुरंत अहरोट्टो । कयपरिभवमंतक्खरजाओ व्व समुट्ठिओ सहसा ||८२५९ ।। दिढबद्धकेसजूडो नियत्थ (च्छ ) वत्थो निबद्धछुरिओ य । करकलियनिसियखग्गो वच्छत्थललुलियहारलओ ||८२६० ।। संनद्धपरियरायारभासुरो जा महाबलो होइ । ता तत्थ दुराधरसो पत्तो हरिविकुमकुमारो ||८२६१ ।। हरिविक्कमभासुरतेयपुंजपज्जालिओ व्व सामंगो । जाओ महाबलो तक्खणेण अइनिप्फुरपयावो ||८२६२ ।। चिंतइ महाबलो 'कयपयत्तसुररक्खियंमि दुट्ठमई । वारसजोयणभाए कीडियमेत्तं पि नो विसइ ||८२६३ ॥ भूमितले गयणयले विज्जाहर - सुर-नराण वि अलंघं । एयं अलंघदुग्गं लोहग्गलसुरपहावेण ॥। ८२६४।। हरिविकुमो वि एसो सामन्नमणुस्सजाइओ एत्थ । कह णु पविट्ठो होही मह सेन्ननिरंतरे दुग्गे ? ।।८२६५ ।।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org
Page Navigation
1 ... 760 761 762 763 764 765 766 767 768 769 770 771 772 773 774 775 776 777 778 779 780 781 782 783 784 785 786 787 788 789 790 791 792 793 794 795 796 797 798 799 800 801 802 803 804 805 806 807 808 809 810 811 812 813 814 815 816 817 818 819 820 821 822 823 824 825 826 827 828 829 830 831 832 833 834 835 836 837 838