Book Title: Siribhuyansundarikaha
Author(s): Sinhsuri, Shilchandrasuri
Publisher: Prakrit Text Society Ahmedabad

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Page 760
________________ सिरिभुयणसुंदरीकहा ॥ ७५१ दुविहं दुग्गं साहावियं च आहारियं च निदि(द्दि)टुं । पयइविसमस्स विजओ आहरियमिमस्स वेसम्मं ।।८२३३।। जं पज्जत्तवसायं पउरिंधण-जवस-सलिलसंघायं । अप्पंमि परस्स तहा दुलहत्तं पुव्ववत्थूण ।।८२३४॥ बहुवन्नरससमिद्धं पवेसअपसारवीरपुरिसढे । एए किर दुग्गगुणा ते सव्वे एत्थ दीसंति ॥८२३५।। इयमाइगुणविहीणं जं दुग्गं तं खु बंदिसालं व । दुग्गविहीणो राया पावइ अइपरिभवं गरुयं ।।८२३६।। दुग्गविहीणो राया जलनिहिबोहित्थसड्डपक्खि व्व । . आवइकाले वच्चउ निरासओ कस्स किर सरणं ? ।।८२३७॥ ता राय ! इमं दुग्गं एयं जेतुं महाबलं सत्तुं । कीरइ नियसत्ताए एरिसदुग्गं जओ नत्थि ।।८२३८।। ‘एवं' ति पभणिऊणं भणइ कुमारो ‘किमज्ज वि विलम्बो ? ।। जामो वेरिसमीवे करेमि अज्जेव निज्जोडं' ।।८२३९।। तो तक्खणेण जक्खो पुरओ गंतुं महाबलं भणइ । ‘किं सोवसि निच्चितो ? उट्ठसु नरनाह ! वेगेण ||८२४०॥ निरणुच्छाहो राया पावइ सयलाई राय ! वसणाई । तम्हा उच्छाहो च्चिय पढमगुणो होइ सामिस्स ॥८२४१।। चयइ न विक्कमभावं वेरिसु तह अमरिसं सया वहइ । तुरियत्तं मइपसरो उच्छाहगुणा इमे हुंति ॥८२४२।। तुह गुरुपरक्कमे वेरियंमि हरिविकुमंमि इह पत्ते । वाहि व्व दीहदीहा उवेक्खिया होहिही निद्दा ।।८२४३ ।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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