Book Title: Siribhuyansundarikaha
Author(s): Sinhsuri, Shilchandrasuri
Publisher: Prakrit Text Society Ahmedabad

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Page 739
________________ ७३० सिरिभुयणसुंदरीकहा ॥ सो वि न इमीए नामं न य थामं नेय जाइ-कुल-रूवं । न गुणा न य मरणंतं अणुरायं एरिसं मुणइ ।।८००२॥ इह संबज्झइ मिहुणं सुहेण अन्नोन्नजायअणुरायं । लोहं पि उभयतत्तं संघडइ पुणो न विवरीयं ।।८००३।। ते दूरे वि अदूरे परोप्परं जाण नेहसंबंधो । नियडट्ठिया वि इयरे जोयणलक्खे वि नज्जति ।।८००४।। कह तं हरेमि कुमरं तेत्तियदूराओ ट्ठिसामत्थं ? मा कह वि हरिज्जंतो सव्वं पि हु संसए ठविही' ।।८००५।। इयमाइ चिंतयंतो हरिविकुम ! जाव एत्थ चिट्ठामि । ता तुह मलयागमणं परिकहियं पणिहिपुरिसेहिं ।।८००६।। तो हं तुज्झागमणं नाउं इह तावसासमं पत्तो । चंदसिरि-कुलवईणं कहियं धूयाए ववहरणं ।।८००७।। कहियं तुज्झागमणं तेहि तओ पभणिओ अहं एवं । 'आणेसु इह कुमारं जक्खेसर ! केण वि नएण' ||८००८।। एत्थंतरंमि अहयं तुज्झ भउब्भंतमाणसो पत्तो । तुह कडयं रयणीए हरिओ सि तुमं मए सुत्तो ।।८००९।। कोमलपल्लवसयणे मुक्को सि मए कुमार ! पासुत्तो । इह आसमस्स नियडे अहयं पुण तुह भया नट्ठो ।।८०१०।। जइ कह वि विगयनिद्दो पेच्छइ मं गुरुपरक्कमो एसो । ता मज्झ नत्थि मोक्खो इय चिंतेणं पलाणो हं ।।८०११।। संपत्तो नियभवणं पुण कहियं भुयणसुंदरीए मए । मलयागमणं हरणं एत्थागमणं च हे(हि)ट्ठाए ॥८०१२।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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