Book Title: Siribhuyansundarikaha
Author(s): Sinhsuri, Shilchandrasuri
Publisher: Prakrit Text Society Ahmedabad

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Page 752
________________ सिरिभुयणसुंदरीकहा ॥ ७४३ तो मज्झट्ठियनारीकहियउवाएण लोहमंजूसा । उग्घाडइ अह नारी नीहरिया तीए मज्झाओ ।।८१४५।। सा लोहनिम्मियाओ नीणइ बंदीकय व्व किविणाण । केणाऽवि अणुवहुत्ता सिरि व्व मंजूसमज्झाओ ।।८१४६।। स(सु)कुमारपाणिपाया सव्वंगावयवसुंदरसरीरा । पढमवयत्था दिट्ठा वरनारी वीरधूयाए ।८१४७।। तो भुवणसुंदरीए रूवं दद्रूण सा वि वरनारी । विम्हइयमाणसा पुण परिभावइ निययचित्तंमि ॥८१४८।। 'किं एसा सुरनारी कीलत्थं एत्थ आगया होही ? । इह उण न मच्चलोए संभविही एरिसं रूवं ।।८१४९।। जे सामन्ना विहिणो घडणा वि य ताण होइ सामन्ना । एसो उण अउरुव्वो जेणेसा निम्मिया नारी ।।८१५०॥ पेच्छह निस्सीमाई रूवाइं गुणा य होंति संसारे । सो अविवेई नूणं जो एत्थ वि गव्वमुव्वहइ' ।।८१५१।। इय चिंतंती भणिया सा नारी भुयणसुंदरीए वि । 'जइ न तुह चित्तपीडा ता साहसु निययवुत्तंत' ||८१५२।। तो सा जंपइ नारी 'जइ ते कोऊहलं ता कहेमि । इह तामलित्तिनयरी अत्थि पसिद्धा जलहितीरे ।।८१५३।। हेमरहो नामेणं राया तत्थऽत्थि पयडमाहप्पो । गुणसुंदरि त्ति नामं तस्स पिया भारिया अत्थि ॥८१५४।। ताण अहं उप्पन्ना धूया नणु धुंयरि व्व तमरूवा । अंतरियजीवलोया गुरुसोयतमंधयारेण ॥८१५५।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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