Book Title: Siribhuyansundarikaha
Author(s): Sinhsuri, Shilchandrasuri
Publisher: Prakrit Text Society Ahmedabad
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७४५
सिरिभुयणसुंदरीकहा ॥
तो तस्स पंचरत्तं अणुणयवयणेहिं पत्थमाणस्स । मज्झ अवन्नाए कओ पज्जलिओ तस्स कोहग्गी ।।८१६७।। सो उण अणिच्छमाणी(णिं) कन्नं परिणेइ नेय परनारिं । भुंजइ सम्मदि(दि)ट्ठी सुसावओ देसविरओ य ।।८१६८।। तो हं बहुप्पयारं तहा तहा तेण भेसिया एत्थ । मुच्छामिसेण जह जह भएण जीयं पलाइ व्व ||८१६९।। तो भीसणभयदसणविहुरा वि हु जाव तन्न इच्छामि । ता तेण एत्थ छूढा आयसमंजूसमझमि ।।८१७०।। खित्ता समुद्दमज्झे पुणो वि उत्तारिया य पुट्ठा य । 'अज्ज वि न किं पि नटुं इच्छ ममं कन्नए ! दइयं' ।।८१७१।। इह संपइ आणीया समुद्दमज्झाओ एत्थ तीरंमि । मं पुच्छिऊण एण्हि कत्थ गओ तं न जाणेमि ।।८१७२ ।। एसो मह वुत्तंतो कहिओ संखेवओ मए तुम्ह । तुब्भे उण पुच्छंती काऽसि तुमं देवि!? लज्जामि ।।८१७३ ।। जाणामि एत्तियं पुण न होसि इह मच्चलोयवत्थव्वा । अच्चभुयरवेणं सुरि व्व असुरि व्व संभवसि' ||८१७४।। तो भुयणसुंदरीए मणंमि परिभावियं जहा 'एसा । मुद्धसहावा न मुणइ सुराण मणुयाण वि विसेसं ।।८१७५।। ता किं मह कहिएणं परमत्थेणेह सुलहविग्घेण । एयाए च्चिय वयणं मन्नामि तह त्ति बुद्धीए' ॥८१७६।। तो भुयणसुंदरीए सा भणिया ‘अवितहं तए नायं । इह सहि ! मलयाहिवई जक्खो मह सामिओ जणओ ॥८१७७।।
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