Book Title: Siribhuyansundarikaha
Author(s): Sinhsuri, Shilchandrasuri
Publisher: Prakrit Text Society Ahmedabad

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Page 755
________________ सिरिभुयणसुंदरीकहा ॥ ता ओसरसु तुरंती पुंण सो विज्जाहरो तुमं नेही । अहयं मंजूसाए तुह ववएसेण अच्छिस्सं ।।८१७८।। किं तु अलक्खं काउं मंजूसं संविघोलिय जउं च । इह नाऽइदूरदेसे तवोवणं जासु वेगेण' ।।८१७९।। इय भणिऊणं बाला हरिविकुमवयणजायअहिमाणा । तणतुलियजीयदेहा पविसइ मंजूसमज्झमि ।।८१८०।। पुण भुयणसुंदरीए सा भणिया 'कुणसु मा भयं मज्झ । मंजूसगया वि अहं न मरामि सुराणुभावेण ।।८१८१॥ ता नीसंकं झंपसु मंजूसं देसु संधिठाणेसु । निबिडदवग्गिविलीणं जउरसमइतुरियहत्थेण' ।।८१८२।। तो सा मुद्धसहावा अमुणियतत्ता तहेव तं कुणइ । विज्जाहरभयभीया तवोवणं जाइ तरलच्छी ॥८१८३।। एत्थंतरंमि सहसा विज्जाहरदारओ तहिं आओ । कयककसघोररवो आढत्तो पभणिउं एवं ।।८१८४।। 'किं पावे ! निल्लज्जे ! निद(६)क्खिन्ने अजायउवरोहे । इच्छिहसि ममं नो वा भत्तारं ? कहसु वेगेण ।।८१८५।। नणु एसो पज्जंतो केत्तियदियहाइं तुज्झ रेसंमि । अच्छिस्सं वामूढो अनेहनेहाणुबंधेण ? ||८१८६।। खिविऊण तुमं घोरे तिमि-मयरसहस्ससंकुलसमुद्दे । जाइसं(स्स) वेयड्ढे मरणंतो एस तुह समओ' ।।८१८७।। तो वीरसेणघूया तं सोउं खयरककसं वयणं । कयमरणनिच्छयमणा रोमंचं वहइ अंगंमि ।।८१८८।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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