Book Title: Siribhuyansundarikaha
Author(s): Sinhsuri, Shilchandrasuri
Publisher: Prakrit Text Society Ahmedabad

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Page 756
________________ सिरिभुयणसुंदरीकहा ॥ 'मह पुत्र पहावेणं कुमारअवमन्नियाए अणुकूलो । सव्वो च्चिय संजाओ मरणविही जइ विही सरलो' ||८१८९ ॥ तो असुयउत्तरुप्पन्नगरुयअमरिसविसेसरत्तच्छो । उच्चल्लइ मंजूसं उप्पयइ नहंतरालंमि ॥ ८१९०॥ रयणायरस्स गब्भे अथाहगंभीरघोरसलिलंमि । अच्छोडिऊण घेल्लइ मंजूसं खेयरो कुद्धो ॥। ८१९१ ।। तो गुरुवेयविमुक्का नीसहनिब्भारवसनिमज्जंती । मंजूसा दूररसायलंमि पडिया समुमि ||८१९२ ।। विज्जाहरो वि तम्हा समागओ सयलपव्वयवणंमि । खणमेत्तमच्छिऊणं पुणो वि रयणायरं एइ ||८१९३ ।। संपेसियनियविज्जो समुद्दमज्झाओ जाव मंजूस । किर कड्डेउं इच्छइ संजायविसुद्धपरिणामो ||८१९४ || ता सयले विसमुद्दे विज्जाबलगाहिए वि नो दिट्ठा । मंजूसा खयरेणं न जाणिया कत्थ वि गय त्ति ।।८१९५ ।। तो तं अपेच्छमाणो मंजूसं सो मणंमि चिंतेइ । ७४७ 'कह नारीवहजणियं पावमहं नित्थरिस्सामि ? || ८१९६ ॥ हा ! पावमोहिएणं विसयासाविनडिएण किर एयं । बीहाविऊण य पुणो परिणयणत्थे पयट्टिस्सं ||८१९७ ।। पक्खित्ता वि हु बहुसो मंजूसा कड्डिया मए बहुसो । एहि तु कह न दीसइ निउणं पि निरूविया एत्थ ?' ||८१९८ ।। इय सोइऊण बहुसो बहुपच्छायावजायमणखेओ । पुणरवि गवेसिऊणं अपेच्छमाणो गओ मलयं ॥। ८१९९ ।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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