Book Title: Siribhuyansundarikaha
Author(s): Sinhsuri, Shilchandrasuri
Publisher: Prakrit Text Society Ahmedabad
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७४२
सिरिभुयणसुंदरीकहा ॥ अंतोगहीरनिघो(ग्घो)ससद्दपरिपूरियंबरदियंतो । दूराओ व्व निसेहइ मरणा(ण)कज्जाओ रायसुयं ।।८१३४।। मलयतडप्फालणगुरुरवेण भणइ व्व पयइगंभीरा । सुरमहणं संतावं अवहं व सव्वं पि विसहति ॥८१३५।। सिसुमार-मच्छ-करि-मयर-तिमिसमूहेहिं भीमरूवं च । जो पयडइ अप्पाणं अवायबहुलं व बालाए ||८१३६।। इय एवंचिय(विह?)रूवं पुरओ दळूण सायरं घोरं । पियरं व बंधवं पिव अहिणंदइ मरणबुद्धीए ॥८१३७।। 'अहममयसंभवे सिरिघरंमि पुरिसोत्तिमेक्कसयणमि । बहुरयणरायहाणिमि नियतणुं इह पवाहेमि' ||८१३८॥ इय मरणज्झवसाया जा चिंतइ ताव लोहमंजूसं । जओ(उ)रसनिरुद्धसंबिं समुद्दतीरंमि सा नियइ ।।८१३९।। दठूण मणे चिंतइ ‘किं एसा एत्थ लोहमंजूसा ? । एयाए मज्झभाए किं होही ? कोउयं मज्झ' ।।८१४०।। गंतूण नियडभाए जा जोयइ ताव तीए मज्झंमि । निसुणइ अईवसण्हं रुइयरवं बालनारीए ।।८१४१ ।। तं रोयंती(ति) सोउं बाला हिययंमि जायकारुन्ना । पुच्छइ गुरुसद्देणं ‘का सि तुमं ? कह इमाऽवत्था ?' ।।८१४२।। तो भणइ मज्झनारी ‘सव्वं तुह वित्थरेण साहिस्सं । मोयावसु एयाओ ताव ममं वज्जकोट्ठाओ' ।।८१४३।। अवणेइ जउरसं सा अवलोयइ संधिसण्हविवरेहिं । पेच्छइ लावन्नपहादिप्पंतिं तत्थ वरनारिं ॥८१४४।।
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