Book Title: Siribhuyansundarikaha
Author(s): Sinhsuri, Shilchandrasuri
Publisher: Prakrit Text Society Ahmedabad

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Page 737
________________ ७२८ सिरिभुयणसुंदरीकहा ॥ तह वि नियसत्तिसरिसं संलिहियं आगारमेत्तमिह रूवं । चित्तपडे धूयाए समप्पियं विम्हयमणाए ।।७९८०।। तो तुहरूवनिरूवणविम्हयवियसंतनयणतामरसा । परियत्तिय व्व बाला वियारमइय व्व संजाया ।।७९८१।। हियए कव्वे चित्ते मणोरहे गुणिकहासु सुविणे वि । झाणे आलावे च्चिय सव्वत्थ तुमं मयच्छीए ।।७९८२।। तुज्झाणुरायरत्तं निरंतरं भुयणसुंदरीए सया । कुमरपडिबिंबएहिं व छिपिज्जइ तिहुयणं सयलं ।।७९८३।। हरिविकुमरूवोहामिएण बहुमच्छरेण व सरेहिं । तुह अणुरत्त त्ति समं पहरिज्जइ पंचबाणेहिं ।।७९८४।। पसरंति तीए कंठे उक्कंठावसविमुक्कहुंकारा । उद्दीवियमयणरसा समंथरं पंचमुग्गारा ॥७९८५।। हिययवियप्पियपिययमपसंगपसरंतपहरिसुक्करिसा । झिज्जइ विमुक्कसासा पुरओ दइयं अपेच्छंती ।।७९८६।। नियदइयविउत्ताए चक्काईये समं सदुक्खाए । परिक्खिवइ अंसुभरियं नियदिटुं नेहभावेण ।।७९८७।। अहिणंदइ अविउत्तं सारसजुयलं व निंदइ तहप्पं । नियदइयविउत्ताहिं देवीहिं सइ(हि)त्तणं कुणइ ।।७९८८।। लिहिऊण तुमं चित्ते सव्वंगावयवसुंदरसरूवं । अप्पाणं पि तओ तह पणमंतं लिहइ पाएसु ।।७९८९।। ओवाइ-स्संइ(ओवाइयाइं?) सूयइ देवाणं दाणवाण विविहाइं । तुह कुमर ! दुलहदंसणपच्चासाविनडिया संती ।।७९९०।। १. ओवाइ मांई सूयइ. ला.।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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