Book Title: Siribhuyansundarikaha
Author(s): Sinhsuri, Shilchandrasuri
Publisher: Prakrit Text Society Ahmedabad

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Page 741
________________ ७३२ सिरिभुयणसुंदरीकहा ॥ जेयव्वो सो सत्तू अलंघदुग्गे महाबलो नाम । जो तस्स सुरस्स बलेण मज्झ सेन्नाइं परिभवइ ।।८०२४॥ ता किं करेमि संपइ ? कज्जाइं उवट्ठियाइं मह दो वि । दो वि गरुयाइं दोन्नि वि कायव्वमईए गहियाइं ॥८०२५।। जइ ता संपइ एयं कन्नं परिणेमि तिहुयणदुलंभं । ता विसयलंपडत्तणदोसकओ होइ मह अजसो ||८०२६।। अन्नं च तायआणाभंगसमुत्थो य होइ मह दोसो । रिउविजए असमत्थो त्ति होइ भुयणे अकित्ती वि ।।८०२७।। ता जइ सच्चं एसा पणामिया मज्झ पुव्वसुकएहिं । ता निच्छियं ममेसा सुचिरेण वि किं वियप्पेण ? ||८०२८।। ता तायसमाइढे संपइ कज्जे समुज्जमिस्सामि । सिद्धमि तंमि पच्छा जहोचियं चिंतइस्सामि' ।।८०२९।। इयमाइ चिंतिऊणं भणिओ हरिविकुमेण सो जक्खो । 'मह हिययकज्जजुत्ताण तुम्ह सव्वं पि ववहरणं ।।८०३०।। गरुयाण परपओयणनिरयाण न आयरो सकज्जेसु । चंदो धवलइ भुयणं न कलंकं अत्तणो फुसइ ।।८०३१।। किं तु मह जक्ख ! हिययं वट्टइ अन्नत्थ निब्भरासत्तं । अणुकूलियं पि बहुसो न पयट्टइ तुम्ह कज्जंमि' ॥८०३२।। तो भणइ जक्खराया ‘मा एवं भणसु निठुरं वयणं । निहयासा एएणं निसुएणं मरइ मह धूया' ।।८०३३।। कुमरेण तओ भणियं 'विसज्ज एयं परिग्गहं ताव । एगते तुह सव्वं हिययगयं जेण साहेमि' ॥८०३४।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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