Book Title: Siribhuyansundarikaha
Author(s): Sinhsuri, Shilchandrasuri
Publisher: Prakrit Text Society Ahmedabad

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Page 712
________________ सिरिभुयणसुंदरीकहा ॥ सच्चं चिय रागंधो उचियाणुचियं न जाणसे मूढ ! । कह रायहंसदइयं धिट्ठो वि हु वंछए रिट्ठो ? ||७७०४।। जायइ दुहेक्कहेऊ अणुराओ हरिणयस्स नियमेण । सीहकलत्ते खेयर! मणोरहाणं पि हु अगम्मे ॥७७०५॥ खज्जोओ व्व न लज्जसि अहिलसमाणो रविस्स पियभज्जं । डज्झिहसि फुडं खेयर! नियफुरणबलेण परिहीणो ।।७७०६।। कायस्स व तुह जाया सत्ती जै(जइ) कहवि गयणगमणमि । ता एत्तिएण मन्नसि अप्पाणं वत्थुबुद्धीए ! ||७७०७।। अहवा को तुह दोसो ? गोत्तं चिय तुम्ह पावकम्मयरं । चंडालकुलं मोत्तुं नन्नो गोमंसमहिलसइ ।।७७०८।। पच्चक्खदिट्ठपरनारिरत्तनियभाउविरसपरिणामो । तह वि न अज्ज वि सिक्खसि अहह महामोहमूढो सि ! ॥७७०९।। वस-मंस-रुहिर-पूयंत-मुत्त-बहुकलिलअसुइरसभरियं । परनारिमिसेण नरा वेयरणिनई व गार्हति ॥७७१०॥ बिंबाहरकुसुमडुं समुच्चरोमंचकंटयाउलियं । . आलिंगंति हयासा सिंबलिरुक्खं व परनारिं ॥७७११।। दिटेहि वि तेहि नरेहि नवर अल्लियइ पावपब्भारो । जाण मणंमि वि जायइ परनारिपसेवणावंछा ॥७७१२।। ते सुणया न मणुस्सा जे जुयइसु अकयअप्प-परभावा । जम्हा न ताण परनारि-माउ-भइणीकयविवेओ ॥७७१३।। रायविरुद्धं जणनिंदियं च नरएक्कपडणहेउं च । कह जाणंता वि नरा मूढा सेवंति परनारिं ॥७७१४॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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