Book Title: Siribhuyansundarikaha
Author(s): Sinhsuri, Shilchandrasuri
Publisher: Prakrit Text Society Ahmedabad
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६१८
सिरिभुयणसुंदरीकहा ॥
' कह मह विसए जाया अलीयसंभवाणा (संभावणा) मह गुरुण ? | ता अज्ज वि अच्छिज्जइ जाव निओ सुव्वए अजसो ||६७७३॥ संभाविउज्जलगुणो जा पुरिसो होइ ताव सुहमतुलं । संभावियदोसस्स य विएसगमणं व मरणं व ||६७७४ || ता सव्वा वि एयं संतमसंतं च अजसपब्भारं ।
सोउं असमत्थेणं न अच्छियव्वं मए एत्थ' ।। ६७७५ ।। इय रयणिचरिमजामे अकहंतो चेव मित्तमाईण । दोखंडवत्थनिवसणपावरणो निग्गओ तुरियं ।।६७७६।। जाए पहायसमए जा तं न नियंति जणणि-जणयाई । ता तव्विओयहुअवहपुलुदेहा विलवंति ||६७७७ ।। 'हा ! कत्थ गओ सिरिअभयचंद ! चंदो व्व कुसुमसंडाई | संमीलिऊण अम्हे सोयमहातमनिमग्गाई || ६७७८ ||
देहेण परं पुत्तय ! सिरीसकुसुमं व होसि सुकुमारो । मुणिओ ववहरणेण उ हियएणं वज्जकढिणो सि' ||६७७९ ।। इय एवमाइबहुविहपलाव - मुच्छासहस्सदुहियाइं । उज्जेणि पि हु दुहियं कुणंति नीसेसजणसहियं ||६७८० || तो जणपरंपराए मुणियं गुणचंदराइणा सव्वं ।
सो वि हु तदुक्ख ( तद्दुह ? ) दुहिओ नाओ अंतेउरेणाऽवि ||६७८१ ।। अंतेउरंमि सोउं तग्गमणं जयसिरी ससंभंता ।
मुच्छानिम्मी (मी) लियच्छी 'धस' त्ति धरणीयले पडिया || ६७८२ ।। कह कह वि महाकट्टेण सीयलसिरिखंडसिसिरपवणेण । आसासिया सहीहिं खणंतरे मुच्छइ पुणो वि ||६७८३ ||
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