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से सुस्पष्ट है । वे जिन व जिनागम के भक्त रहते हुए पुण्यवर्धक क्रियाओं के विरोधी नहीं रहे हैं । यदि वे पुण्यवर्धक क्रियाओं के विरोधी होते तो प्राय: अपने सभी ग्रन्थों के आदि व अन्त गुणानुराग से प्रेरित होकर अरहन्त, सिद्ध और नामनिर्देशपूर्वक, विविध तीर्थंकरों को नमस्कार आदि क्यों करते ? पर उन्होंने उनकी भक्तिपूर्वक वन्दना व नमस्कार आदि किया है । प्रवचनसार को प्रारम्भ करते हुए तो उन्होंने वर्धमान, शेष (२३) तीर्थंकर, अरहंत, सिद्ध, गणधर अध्यापकवर्ग ( उपाध्याय) और सर्वसाधुओं को नमस्कार किया है । यह उनकी गुणानुरागपूर्ण भक्ति पुण्यवर्धक ही तो है, जो स्वर्गसुख का कारण मानी जाती है । '
उन्होंने राग-द्वेष एवं कर्म-फल से अनिर्लिप्त शुद्ध आत्मा के स्वरूप के अतिरिक्त अन्य पुद्गल आदि द्रव्यों की भी प्ररूपणा की है। उनका पंचास्तिकाय ग्रन्थ तो पूर्णतया द्रव्यों और पदार्थों का ही प्ररूपक है । इसमें उन्होंने उन द्रव्यों और पदार्थों का निरूपण करके अन्त में उस सबका उपसंहार करते हुए यह हार्दिक भावना व्यक्त की है कि मैंने प्रवचन - भक्ति से प्रेरित होकर मार्गप्रभावना के लिए प्रवचन के सारभूत-द्वादशांगस्वरूप परमागम के रहस्य के प्ररूपक - इस पंचास्तिकायसूत्र को कहा है। 3
यहाँ यह ज्ञातव्य है कि आचार्य कुन्दकुन्द के समक्ष कौन-सा प्रवचन रहा है, जिसका गम्भीर अध्ययन करके उन्होंने मार्गप्रभावना के लिए उसके सारभूत प्रकृत पंचास्तिकाय ग्रन्थ को रचा है । षट्खण्डागम में निर्दिष्ट श्रुतज्ञान के ४१ पर्यायनामों में एक प्रवचन भी है ( सूत्र ५, ५, ५० ) । धवलाकार ने इस 'प्रवचन' शब्द के अर्थ को स्पष्ट करते हुए पूर्वापर विरोधादि दोषों से रहित निरवद्य अर्थ के प्रतिपादक प्रकृष्ट शब्द-कलाप को प्रवचन कहा है । आगे उन्होंने यहीं पर वर्णं-पंक्तिस्वरूप द्वादशांग श्रुत को व प्रकारान्तर से द्वादशांग भावश्रुत को भी प्रवचन कहा है । इसके पूर्व प्रसंगप्राप्त उसी का अर्थ उन्होंने द्वादशांग और उसमें होनेवाले देशव्रती, महाव्रती और सम्यग्दृष्टि भी किया है। इससे इतना तो स्पष्ट है कि उनके समक्ष द्रव्य-पदार्थों का प्ररूपक कोई महत्त्वपूर्ण आगम ग्रन्थ रहा है, जिसके आधार से उन्होंने भव्य जीवों के हितार्थ पंचास्तिकाय परमागम को रचा है । यह भी सम्भव है कि आचार्यपरम्परा से प्राप्त उक्त द्रव्य पदार्थ विषयक व्याख्यान के आश्रय से ही उन्होंने उसकी रचना की हो। इससे यह तो स्पष्ट है कि वे आगम-ग्रन्थों के अध्ययन-अध्यापन के विरोधी नहीं रहे हैं ।
आचार्य कुन्दकुन्द लोकहितैषी श्रमण रहे हैं । उनकी संसारपरिभ्रमण से पीड़ित प्राणियों को उस दुख से मुक्त कराने की आन्तरिक भावना प्रबल रही है । इसी से उन्होंने अपने समयसार आदि ग्रन्थों में परिग्रह-पाप का प्रबल विरोध किया है । परिग्रह यद्यपि मूर्च्छा या ममत्व भाव को माना गया है, फिर भी जब तक बाह्य परिग्रह का परित्याग नहीं किया जाता है तब तक 'मम इदं' इस प्रकार की ममत्व बुद्धि का छूटना सम्भव नहीं है । सम्भवतः
१. अरहंत - सिद्ध- चेदिय-पवयणभत्तो परेण नियमेण ।
जो कुणदि तवोकम्मं सो सुरलोगं समादियदि || - पंचास्तिकाय १७१
२. जैसे प्रवचनसार २, ३५-५२, नियमसार २० ३७ इत्यादि ।
३. पंचास्तिकाय १७३ ( इसके पूर्व की गाथा १०३ भी देखी जा सकती है) ।
४. धवला पु० १३, पृ० २५० व २८३ तथा पु०८, पृ० ०
५. प्रवचनसार ३, १६-२०
३४ / षट्खण्डागम- परिशीलन
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