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सकता है । यह स्मरणीय है कि आत्मोत्कर्ष वाकपटुता पर निर्भर नहीं है, वह तो अन्त:करण की प्रेरणा पर निर्भर है । जितने अंश में उसके अन्तःकरण से राग-द्वेष हटते जायेंगे उतने अंश में वह आत्मोत्कर्ष में अग्रसर होता जायेगा। यही शुद्धोपयोग के उन्मुख होने का मार्ग है । व्रतसंयमादिरूप शुभोपयोग तो तब निश्चित ही छूटेगा, वह कभी साक्षात् मुक्ति का साधन नहीं हो सकता है। इस प्रकार से यह निश्चित होता है कि शुद्धोपयोग जहाँ सर्वथा उपादेय और अशुभोपयोग सर्वथा हेय है वहाँ शुभोपयोग कथंचित् उपादेय और कथंचित् हेय है।
अमृतचन्द्र सूरि आ० कुन्दकुन्द के समयसार आदि आध्यात्मिक ग्रन्थों के रहस्य के उद्घाटक हैं । उनकी एक मौलिक कृति 'पुरुषार्थसिद्धयुपाय' है, जिसे अपूर्वश्रावकाचार ग्रन्थ कहना चाहिए । इसमें उन्होंने सल्लेखना के साथ श्रावक के बारह व्रतों का वर्णन करते हुए उस प्रसंग में यह स्पष्ट कर दिया है कि जो व्रत-संरक्षण के लिए निरन्तर इन समस्त शीलों का पालन करता है उसका मुक्ति-लक्ष्मी पतिवरा के समान उत्सुक होकर स्वयं वरण करती है-उसे मुक्ति प्राप्त होती है।'
इसका अभिप्राय यही है कि शुभोपयोगस्वरूप व्रत-संयमादि संसार के ही कारण नहीं हैं, परम्परया वे मोक्ष के भी प्रापक हैं ।
समन्वयात्मक दृष्टिकोण की आवश्यकता
यह सुविदित है कि जैन सिद्धान्त में अनेकान्त को महत्त्वपूर्ण स्थान प्राप्त है । यदि उसका अनुसरण किया जाये तो विरोध के लिए कोई स्थान नहीं रहता। जिन अमृतचन्द्र सूरि और उनके पुरुषार्थसिद्धयुपाय का ऊपर उल्लेख किया गया है उन्होंने इस महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ को प्रारम्भ करते हुए मंगलस्वरूप केवलज्ञानरूप परंज्योति के जयकारपूर्वक उस अनेकान्त को नमस्कार किया है जो परमागम का बीज होकर समस्त द्रव्याथिक-पर्यायाथिक नयों के विलास रूप नित्यअनित्य व शुद्ध-अशुद्ध आदि परस्पर विरुद्ध प्रतीत होनेवाले धर्मों के विरोध को इस प्रकार से दूर करता है जिस प्रकार कि कोई निर्दोष आखोंवाला सूझता पुरुष हाथी के कान, सूंढ व पांव आदि किसी एक-एक अंग को टटोलकर उसे ही पूरा हाथी माननेवाले किन्हीं जन्मान्धों के पारस्परिक विवाद को दूर कर देता है । यह भी ध्यातव्य है कि अमृतचन्द्र सूरि ने परमागम को तीनों लोकों का अद्वितीय नेत्र घोषित किया है। ___ इन्हीं अमृतचन्द्र सूरि का जो दूसरा 'तत्त्वार्थसार' ग्रन्थ है उसमें उन्होंने जीवाजीवादि सात तत्त्वों का विवेचन किया है। अन्त में उन्होंने वहाँ उस सब का उपसंहार करते हुए मुमुक्षु भव्यजनों को प्रेरणा दी है कि इस प्रकार से प्रमाण, नय, निक्षेप, निर्देश-स्वामित्व आदि और सत्संख्या आदि के आश्रय से सात तत्त्वों को जानकर उन्हें उस मोक्षमार्ग का आश्रय लेना चाहिए जो निश्चय और व्यवहार की अपेक्षा दो प्रकार से स्थित है। उनमें निश्चय मोक्षमार्ग साध्य और व्यवहार मोक्षमार्ग उसका साधन है। शुद्ध आत्मा का जो श्रद्धान, ज्ञान और उपेक्षा-राग-द्वेष के परित्यागपूर्वक मध्यस्थता-है; यह सम्यक्त्व, ज्ञान और चारित्ररूप
१. इति यो व्रतरक्षार्थ सततं पालयति सकलशीलानि । ___वरयति पतिवरेव स्वयमेव समुत्सुका शिवपद-श्रीः ॥१८॥ २. पु० सि० १-३
३२ / षट्खण्डागम-परिशीलन
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