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निश्चय मोक्षमार्ग है। तथा परस्वरूप से जो श्रद्धान, ज्ञान और उपेक्षा है वह उक्त रत्नत्रयस्वरूप व्यवहार मोक्षमार्ग है, इत्यादि । इस प्रकार से उन्होंने एक मात्र निश्चय का मालम्बन लेकर न तो व्यवहार मोक्षमार्ग को अस्वीकार किया है और न उसे हेय ही कहा है, बल्कि उन्होंने उसे निश्चय मोक्षमार्ग का साधक ही निर्दिष्ट किया है।
इससे निश्चित है कि वस्तुस्वरूप का यथार्थ विचार व निर्णय राग-द्वेष को छोड़ मध्यस्थ रहते हुए अनेकान्तात्मक दृष्टिकोण से ही किया जा सकता है, जो स्व-पर के लिए हितकर होगा । जो आत्महितैषी व्यवहार और निश्चय को यथार्थ रूप से जानकर दुराग्रह से रहित होता हुआ मध्यस्थ रहता है वही देशना के परिपूर्ण फल को प्राप्त करता है।
-(पु० सि० ८) अमृतचन्द्र सूरि ने अपने 'समयसार-कलश' में यह भी स्पष्ट किया है कि जिनागम द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक अथवा शुद्धनय और अशुद्ध नय इन दोनों के विरोध को नष्ट करनेवाला है, वह विवक्षाभेद से वस्तुस्वरूप का निरूपण करता है । वहाँ उसका द्योतक चिह्न (हेतु) 'स्यात्' पद है, उसे स्याद्वाद' या कथंचिद् वाद कहा जाता है । उदाहरणस्वरूप उसे शुभोपयोग की उपादेयता और इयत्ता के रूप में पीछे स्पष्ट भी किया जा चुका है। जो भव्य दर्शनमोहस्वरूप मिथ्यादर्शन से रहित होकर उस जिनागम में रमते हैं-सुरुचिपूर्वक उसका अभ्यास करते हैं .-वे ही यथार्थ में नयपक्ष से रहित होते हुए परंज्योतिस्वरूप निर्बाध समयसार को देखते हैं, अर्थात् उसके रहस्य को समझते हैं । आगे व्यवहारनय की कहां कितनी उपयोगिता है, इसे भी स्पष्ट करते हुए वहाँ यह कहा गया है कि जो विशेष तत्त्वावबोध से रहित नीचे की अवस्था में स्थित हैं उनके लिए व्यवहारनय हाथ का सहारा देता है-वस्तस्वरूप के समझने में सहायक होता है। किन्तु जो पर के सम्पर्क से रहित शुद्ध ज्ञान-दर्शनस्वरूप चेतन आत्मा का अभ्यन्तर में अवलोकन करने लगे हैं उनके लिए वह व्यवहार नय निरर्थक हो जाता है।
-(स० कलश ४-५) इस प्रकार अध्यात्म के मर्मज्ञ होते हुए अमृतचन्द्र सूरि ने जो अनेकान्त को महत्त्व दिया है और तदनुसार ही प्रसंगप्राप्त तत्त्व का विवेचन किया है-उसमें कहीं किसी प्रकार का कदाग्रह नहीं है-उनका वह आदर्श मुमुक्षुओं के लिए ग्राह्य होना चाहिए। आत्मा का हित वीतरागपूर्ण दृष्टि मे है, किसी प्रकार की प्रतिष्ठा व प्रलोभन में वह सम्भव नहीं है ।
कुन्दकुन्द को व्यवहार का प्रतिषेधक नहीं कहा जा सकता ____ ऊपर के विवेचन से यह स्पष्ट हो चुका है कि आ० कुन्दकुन्द अध्यात्म प्रधान होकर भी व्यवहार के विरोधी नहीं रहे हैं । यह उनके समयसार के साथ अन्य ग्रन्थों-जैसे पंचास्तिकाय, प्रवचनसार, नियमसार, दर्शनप्राभृत, चारित्रप्राभूत, द्वादशानुप्रेक्षा आदि के अध्ययन
१. स्वयं आचार्य कुन्दकुन्द ने स्याद्वाद के महत्त्व को इस प्रकार से प्रतिष्ठापित किया है
सिय अत्थि णत्थि उहयं अव्वत्तव्वं पुणो य तत्तिदयं । दव्वं खु सत्तभंगं आदेसवसेण संभवदि ।। -पंचास्तिकाय, १४ अस्थि ति य णत्थि त्ति य हवदि अवत्तव्वमिदि दव्वं।। पज्जएण दु केण वि तदुभयमादिट्ठमण्णं वा ।।
-प्र०सा०२-२३
प्रस्तावना/३३
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