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वस्तुस्थिति का बोध होने से संवेग और निवेद भी उत्पन्न होता है। इसके अतिरिक्त चित्त की एकाग्रता से अशुभ उपयोग से बचकर जीव की शुभ उपयोग में प्रवृत्ति होती है जो शुद्धोपयोग की भी साधक हो सकती है।
इस प्रकार प्रस्तुत षट्खण्डागम में चर्चित इन कुछ अध्यात्ममार्ग में प्रवृत करानेवाले विषयों का यहाँ परिचय कराया गया है। उनका और उनसे सम्बन्धित अन्य अनेक विषयों का कुछ परिचय प्रकृत 'षट्खण्डागम-परिशीलन' से भी प्राप्त किया जा सकता है। सर्वाधिक जानकारी तो ग्रन्थ के अध्ययन से ही प्राप्त होनेवाली है।
उपयोग की स्थिरता
जैसा कि ऊपर स्पष्ट किया जा चुका है, उपर्युक्त विषयों के अध्ययन व मनन-चिन्तन से तत्त्वज्ञान की वद्धि के साथ संवेग और निर्वेद भी उत्पन्न होता है। इसके अतिरिक्त उनमें उपयुक्त रहने से उपयोग की स्थिरता से मन भी एकाग्रता को प्राप्त होता है। वह उपयोग शद्ध, शभ और अशुभ के भेद से तीन प्रकार का है । उनमें सब प्रकार के आस्रव से रहित होने के कारण मोक्ष-सुख का अनन्य साधनभूत शुद्ध उपयोग हो सर्वथा उपादेय है। अरहन्त आदि तथा प्रवचन में अभियुक्त अन्य ऋषि-महर्षि आदि के विषय में जो गुणानुरागात्मक भक्ति होती है व उन्हें देखकर खड़े होते हुए जो उनकी वन्दना एवं नमस्कार आदि किया जाता है; यह सब शुभ उपयोग का लक्षण है, जिसे सरागवर्या या सरागचारित्र कहा जाता है। इसकी भी श्रमगधर्म में निन्दा नहीं की गयी है-वह शुद्धोपयोग के अभाव में गृहस्थ की तो बात क्या. मनियों को भी ग्राह्य है। ऐसे शुभ उपयोग से युक्त मुनिजन दर्शन-ज्ञान के उपदेश के साथ शिष्यों का ग्रहण एवं संयम आदि से उनका पोषण भी कर सकते हैं। यहां तक कि वे जिनेन्द्रपूजा आदि का उपदेश भी कर सकते हैं। उसके कारण उनका सरागचारित्ररूप श्रमणधर्म कलषित नहीं होता । कारण यह कि मुनियों के शुद्ध और शुभ दोनों उपयोग कहे गये हैं। ऐसे मुनिजन अन्य ग्लान, गुरु, बाल व वृद्ध श्रमणों की वैयावृत्ति के लिए लोकिक जनों के साथ सम्भाषण करके उन्हें प्रेरित भी कर सकते हैं । इस प्रकार की प्रवृत्ति मुनियों और गहस्थों दोनों के लिए प्रशस्त व उत्तम कही गयी है (५४)। उससे सुख की प्राप्ति भी होती है। जो षट्काय जीवों की विराधना से रहित चातुर्वर्ण्य श्रमणसंघ का उपकार करता है वह भी सरागचारित्र से युक्त साध है-उसे भी शुभ उपयोग से युक्त श्रमण ही समझना चाहिए (४६) । यह अध्यात्मप्रधानी आचार्य कुन्दकुन्द के कथन का अभिप्राय है, जिसे उन्होंने अपने 'प्रवचनसार' में अभिव्यक्त किया है।'
इससे यह निष्कर्ष निकलता है कि आत्महितैषी जीव को, यदि वह शुद्ध उपयोग से परिणित नहीं हो सकता है तो उसे, हजारों दुःखों से व्याप्त कुमानुष, तिर्यंच और नारक आदि दुर्गति के कारणभूत अशुभ उपयोग से दूर रहकर स्वर्गसुख के कारणभूत शुभ उपयोग में तत्पर रहना उचित है।
आचार्य पूज्यपाद ने इस अभिप्राय को इन शब्दों में व्यक्त किया गया है
१. प्रवचनसार ३,४५-६० २. प्रवचनसार १,११-१२
३० / षट्खण्डागम-परिशीलन
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