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अक्स्थाएँ किस कर्म के उदय, उपशम, क्षय व क्षयोपशम से प्राप्त होती हैं। इसका विशव विवेचन किया गया है (पु०७)।
पूर्वोक्त तीसरे खण्ड में प्रसंग पाकर धवलाकार ने कर्म के बन्धक मिथ्यात्व, असंयम (अविरति), कषाय और योग इन चार मूल प्रत्ययों व उनके सत्तावन (५+१२+२५+१५) उत्तरभेदों की प्ररूपणा विस्तार से की है (पु० ८, पृ० १३-३०)।
मूल ग्रन्थकर्ता ने भी कर्मबन्धक प्रत्ययों का विचार दूसरे 'वेदना' खण्ड के अन्तर्गत आठवें वेयणपच्चविहाण अनुयोद्वार में नयविवक्षा के अनुसार कुछ विशेषता से किया है (पु. १२) ।
२. 'वर्गणा' खण्ड के अन्तर्गत जो 'कर्म' अनुयोगद्वार है उसमें दस प्रकार के कर्म का निरूपण किया गया है। उनमें छठा अध:कर्म है। अधःकर्म का अर्थ है जीव को अधोगति स्वरूप नरकादि दुर्गति में ले जाने वाला घृणित आचरण । जैसे-प्राणियों के अंगों का छेदन करना, उनके प्राणों का वियोग करना, विविध उपद्रव द्वारा उन्हें सन्तप्त करना एवं असत्यभाषण आदि । इस प्रकार आत्मघातक अध:कर्म का निर्देश करके ठीक उसके आगे ईर्यापथ, तपःकर्म और क्रियाकर्म-रत्नत्रय के संवर्धक इन प्रशस्त कर्मों (क्रियाओं) को भी प्रकट किया गया है। इनमें ईर्यापथ कर्म के स्वरूप को धवलाकार ने प्राचीन तीन गाथाओं को उद्धृत कर उनके आश्रय से अनेक विशेषताओं के साथ स्पष्ट किया है । इसी प्रकार तपःकर्म के प्रसंग में छह प्रकार के बाह्य और छह प्रकार के अभ्यन्तर तप के स्वरूप आदि को स्पष्ट किया गया है। यहीं पर इस अभ्यन्तर तप के अन्तर्गत ध्यान का विवेचन ध्याता, ध्यान, ध्येय और ध्यानफल इन चार अधिकारों में विस्तार से किया गया है । यहाँ धर्म और शुक्ल इन दो प्रशस्त ध्यानों को ही प्रमुखता दी गयी है। इनमें अन्तिम दो शुक्लध्यानों का फल योगनिरोधकपूर्वक शेष रहे चार अघातिया कर्मों को भी निमल करके शाश्वतिक निर्बाध सुख को प्राप्प रहा है। इस प्रकार ध्यान मुक्ति का साक्षात् साधनभूत है । यह सब मुमुक्षुजनों के लिए मननीय है (पु० १३)।
३. दूसरे 'वेदना खण्ड के अन्तर्गत वेदना नामक दूसरे अनुयोगद्वार में ज्ञानावरणीय आदि वेदनाओं की प्ररूपणा द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव व स्वामित्व आदि अनेक अवान्तर अनुयोगद्वारों में की गयी है । यह सब संवेग और निर्वेद का कारण है (पु० १०-१२) ।
४. पूर्वनिर्दिष्ट 'वर्गणा' खण्ड में जो 'बन्धन' नाम का अनुयोगद्वार है उसमें बन्ध, बन्धक, नीय और बन्धविधान इन चार अधिकारों का निर्देश करके बन्ध-बन्धक आदि का विवेचन पूर्व खण्डों में कर दिये जाने के कारण उनकी पुनः प्ररूपणा नहीं की गयी है। वहाँ प्रमुखता से बन्धनीय-बन्ध के योग्य तेईस प्रकार की पुद्गलवर्गणाओं-का विचार किया गया है। उनमें शरीर-रचना की कारणभूत आहारवर्गणा, तैजसवर्गणा, भाषावर्गणा, मनोवर्गणा, कर्मरूपता को प्राप्त होनेवाली कार्मणवर्गणा एवं बादर-सूक्ष्मनिगोदवर्गणा आदि का स्वरूप जानने योग्य है (पु० १४)।
५. कौन जीव किस गति से किस गति में आते-जाते हैं और वहाँ वे ज्ञान एवं सम्यक्त्व आदि किन गुणों को प्राप्त कर सकते हैं व किन को नहीं प्राप्त कर सकते हैं, इसका विशद विवेचन जीवस्थान खण्ड से सम्बन्धित नौ चूलिकाओं में से अन्तिम 'गति-आगति' चूलिका में किया गया है (पु० ६)।
ये सब विषय ऐसे हैं जिनके मनन-चिन्तन से तत्त्वज्ञान तो वृद्धिंगत होता ही है, साथ ही
प्रस्तावना | २९
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