Book Title: Shantisudha Sindhu
Author(s): Kunthusagar Maharaj, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
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( शान्तिसुधासिन्धु )
उत्तर - मायाचारसहस्रेण दुराचारशतेन हि ।
उपाज्यंते धनं नित्यं ससारक्लेशवद्धकम् । मन्ये ततो धनं न स्यात् पापपुंजमुपाज्यते । दाने धर्मे व्ययं नित्यं न कुर्याद् यतिशर्मदे । ध्रुवं तत्पापतो भीमं प्रयाति नरकं नरः । ज्ञात्वेति चतुरंनिंदेयं तत्पापशान्तये ।। ४८ ॥
अर्थ- इस संसारमें जो धन कमाया जाता है वह हजारों मायाचार और संकड़ों दुराचार करके कमाया जाता है । इसीलिये वह धन संसारके अनंत दुःखोंको देनेवाला कहा जाता है । अतएव आचार्य कहते हैं कि यह संसारी जीव धन नहीं कमाता किंतु पापोंका समूह ही कमाता है । यदि वह गृहस्थ इस धनको दान धर्ममें खर्च न करे अथवा मुनियोंके कल्याणके लिये खर्च न करे तो समझना चाहिए कि वह गृहस्थ उस पापके उदयसे भयानक नरकमें अवश्य पडेगा । अत एव यही समझकर चतुर पुरुषोंको उस धन कमानेके पापको शांत करनेके लिए वह धन दान देने में ही खर्च कर देना चाहिए।
भावार्थ- खेती करना वा व्यापार करना आदि धन कमानेके साधन हैं तथा इन सब साधनोंमें जीवोंकी हिंसा अवश्य होती है । इसके सिवाय अनेक प्रकारकी मायाचारी करनी पडती है, अनेक प्रकारके न करने योग्य काम करने पड़ते हैं और अनेक प्रकारके दुराचार करने पडते हैं इतने सब अनर्थ करनेपर धन कमाया जाता है । इसीलिए यह धन पापोंका समूह माना जाता है । और धन कामानेका अर्थ पापोंका समूह कमाना हो जाता है । परंतु वह पापोंका समूह उस धनको दानधर्ममें खर्च कर देनेसे नष्ट वा शान्त हो जाता है । यदि यह धन दानधर्ममें खर्च न किया जाय अर्थात् दान-धर्ममें खर्च कर उस पापको शांत न किया जाय तो उस धन कमानेवालेको उन पापोंके उदयसे अवश्य ही नरकमें जाना पड़ता है और बहत काल तक वहाँके घोर दुःख सहन करने पड़ते हैं । वे नरकके घोर दुःख सहन न करने पड़ें इसके लिए गृहस्थोंको दान धर्म अवश्य करना चाहिए । दान करनेसे ही गृहस्थीके पाप शांत होते हैं।