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श्रमण संस्कृति का प्राग-ऐतिहासिक अस्तित्व
असुर और अर्हत्
वैदिक आर्यों के आगमन से पूर्व भारतवर्ष में दो प्रकार की जातियां थीं - सभ्य और असभ्य । सभ्य जाति के लोग गांवों और नगरों में रहते थे और असभ्य जाति के लोग जंगलों में । असुर, नाग, द्रविड़ - ये सभ्य जातियां थीं । दास जाति असभ्य थी । असुरों की सभ्यता और संस्कृति बहुत उन्नत थी । उसके पराक्रम से वैदिक आर्यों को प्रारम्भ में
उठानी पड़ी ।
बहुत क्षति असुर लोग आर्हत धर्म के उपासक थे । बहुत आश्चर्य की बात है कि जैन साहित्य में इसकी स्पष्ट चर्चा नहीं मिलती, किन्तु पुराण और महाभारत में इस प्राचीन परम्परा के उल्लेख सुरक्षित हैं ।
विष्णुपुराण, पद्मपुराण, मत्स्यपुराण' और देवीभागवत' में असुरों को आर्हत या जैन धर्म का अनुयायी बनाने का उल्लेख है ।
विष्णुपुराण के अनुसार मायामोह ने असुरों को आर्हत धर्म में दीक्षित किया । त्रयी ( ऋग्, यजुः और साम) में उनका विश्वास नहीं रहा ।' उनका यज्ञ और पशु बलि से भी विश्वास उठ गया ।" वे अहिंसा धर्म में विश्वास करने लगे । उन्होंने श्राद्ध आदि कर्मकाण्डों का भी विरोध करना प्रारम्भ कर दिया । "
विष्णुपुराण का मायामोह किसी अहंत का शिष्य था । उसने असुरों से कहा—'यह धर्म- युक्त है और यह धर्म - विरुद्ध है; यह सत् है और यह असत् है; यह मुक्तिकारक है और इससे मुक्ति नहीं होती; यह आत्यन्तिक परमार्थ है और यह परमार्थ नहीं है, यह कर्त्तव्य है और यह अकर्त्तव्य है; यह ऐसा नहीं है और यह स्पष्ट ऐसा ही है; यह दिगम्बरों का धर्म है और यह साम्बरों का धर्म है । "
१. विष्णुपुराण, ३।१७।१८ :
२. पद्मपुराण, सृष्टि खंड, अध्याय १३, श्लोक १७०-४१३ ।
३. मत्स्यपुराण, २४।४३-४ε।
४. देवीभागवत, ४।१३।५४-५७ ।
५. विष्णुपुराण ३।१८।१२ : अर्हतैतं महाधमं मायामोहेन ते यतः । प्रोक्तास्तमाश्रिता धर्ममार्हतास्तेन तेऽभवन् ॥
६. वही, ३।१८।१३,१४ । ७. वही, ३।१८।२७ । ८. वही, ३।१८।२५ ।
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६. वही, ३।१८।२८-२६ । १०. वही ३।१८१८ -११ ।
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