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बान् थे और वे उन्हें देवाधिदेव के रूप में मान्य करते थे ।
अर्हन्
संस्कृति के दो प्रवाह
ऋग्वेद में भगवान् ऋषभ के अनेक उल्लेख हैं ।' किन्तु उनका अर्थपरिवर्तन कर देने के कारण वे विवादास्पद हो जाते हैं । अर्हन् शब्द श्रमण संस्कृति का बहुत प्रिय शब्द है | श्रमण लोग अपने तीर्थंङ्करों या वीतराग आत्माओं को अर्हन् कहते हैं । जैन और बौद्ध साहित्य में अर्हन् शब्द का प्रयोग हजारों बार हुआ है । जैन लोग आर्हत नाम से भी प्रसिद्ध रहे हैं । ऋग्वेद में अर्हन् शब्द का प्रयोग श्रमण नेता के लिए ही हुआ है—
अर्हन् बिर्भाष सायकानि धन्वार्हन्निष्कं यजतं विश्वरूपम् । अर्हन्निवं दयसे विश्वमभ्वं न वा ओजीयो रुद्रत्वदस्ति ||
आचार्य विनोबा भावे ने इसी मंत्र के एक वाक्य 'अर्हन्निदं दयसे विश्वमभ्वं' को उद्धृत करते हुए लिखा है- 'हे अर्हन् ! तुम जिस तुच्छ दुनिया पर दया करते हो । इसमें 'अर्हन्' और 'दया' दोनों जैनों के प्रिय शब्द हैं । मेरी तो मान्यता है कि हिन्दू धर्म प्राचीन है, शायद उतना ही जैन धर्म भी प्राचीन है ।"
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अर्हन् शब्द का प्रयोग वैदिक विद्वान् भी श्रमणों के लिए करते रहे हैं। हनुमन्नाटक में लिखा है-"अर्हन्नित्यथ जैनशासनरताः ।"
ऋग्वेद के अर्हन् शब्द से यह प्रमाणित होता है कि श्रमण संस्कृति ऋग्वैदिक काल से पूर्ववर्ती है ।
श्री जयचन्द्र विद्यालंकार ने व्रात्यों को अर्हतों का अनुयायी माना - 'वैदिक से भिन्न मार्ग बुद्ध और महावीर से पहले भी भारतवर्ष में थे । अर्हत् लोग बुद्ध से पहले भी थे और अनेक चैत्य भी बुद्ध से पहले थे । उन अर्हतों और चैत्यों के अनुयायी 'व्रात्य' कहलाते थे, जिनका उल्लेख अथर्ववेद में भी है ।"
१. ऋग्वेद १।२४११६०।१; २|४ | ३३ | १५; ५|२|२८|४ ६|१|१८ ६|२|१६| ११; १०।१२।१६६।१ ; आदि-आदि
२. वही, २।४।३३।१० ।
३. हरिजन सेवक, ३० मई १९४८ ।
४. भारतीय इतिहास की रूपरेखा, प्रथम जिल्द, पृ० ४०२ ।
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