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"सम्मेद शिखर- विवाद क्यों और कैसा?"
विवेक और धैर्य से सोचने की आवश्यकता है कि ऐसे जाली काम, आज की तरह पुराने जमाने में होना कतई सम्भव नहीं थे और फिर इन फरमानों को ब्रिटिश सरकार और स्वतंत्र भारत की सरकारों के साथ अदालतों की कार्यवाहियों में मान्यता कैसे मिलती ? फिर भी दिगम्बर समाज को मुंह बोलते तथ्यों और सत्यों पर भरोसा नहीं है तो उन्हें प्रबन्ध में भागीदारी पाने की लालसा के वशीभूत होकर अन्य उल्टे-सुल्टे रास्ते अपनाने की बजाय इन फरमानों को अदालतों के जरिये नकली साबित करने की ही पहल और परिश्रम करना था । अगर दिगम्बर समाज इस में सफल हो जाता है तो प्रबन्ध में भागीदारी प्राप्त करने का रास्ता स्वयं ही उनका सहयोगी बन जायेगा ।
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जहाँ तक सम्मेद शिखर पर अपर्याप्त सुविधाओं की शिकायत का प्रश्न है इसका जिम्मेदार स्वयं दिगम्बर समाज है । जब-तब सम्मेत शिखर में आवश्यक सुविधाओं को जुटाने का प्रयत्न किया गया दिगम्बर समाज ने अदालत के दरवाजें खटखटा कर स्टे आर्डर ले लिया। सम्मेद शिखर पर पावदान (सीढ़ियां ) बनाने के मामले तक में दिगम्बर समाज ने स्टे आर्डर लिया लेकिन उच्चतम न्यायालय के फैसले से 3.3.90 के स्टे आर्डर के हट जाने के पश्चात् वहाँ सीढ़ियां बनाने का निर्माणकार्य प्रारम्भ हो सका और दस लाख की लागत से, अधिकतर कार्य कभी का पूरा हो चुका है। इस निर्माण कार्य को लेकर भी दिगम्बर समाज ने प्रबन्धकों के विरूद्ध अवमान अनादर की
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