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"सम्मेद शिखर-विवाद क्यों और कैसा?"
सूचनार्थ एवं आवश्यक कार्यवाही हेतु प्रेषित।
जयपुर की "मणिभद्र"वार्षिक स्मारिका 1997 में प्रमुख तीर्थसेवी श्री भगवानदास पालीवाल के प्रकाशित लेख को यहाँ ज्यों का त्यों प्रकाशित किया जा रहा है जो दिगम्बर-समाज के उद्भव और महान् तीर्थों को विवादास्पद बनाने के दूषित चक्र के साथ ही अदालतों के निर्णय की संक्षिप्त जानकारी से आम जनता, विशेष कर समूचे जैन समाज को सही एवं वास्तविक स्थिति से परिचित होने में मदद मिलेगी
''ये निश्चित रूप से नहीं कहा जा सकता कि किस तारीख संवत अथवा सन् में दिगम्बर समाज श्वेताम्बरों से अलग हुआ, लेकिन यह निर्विवाद रूप से सत्य है कि भगवान महावीर के निर्वाण के 609 साल बाद दिगम्बर आमनाय का प्रादुर्भाव हुआ। पहले जैन समाज जैन संघ के नाम से ही जाना जाता था। वर्तमान काल की अवसर्पिणी काल में 24 तीर्थंकर ऋषभदेव से लेकर भगवान महावीर तक हुए जो वर्तमान काल के तीसरे एवं चौथे भाग से सम्बन्धित हैं। इस काल के पाँचवें काल के तीन साल साढ़े आठ महिने बाद इस समाज का प्रादुर्भाव माना जाता है। दिगम्बर समाज के सारे ही बड़े तीर्थ दक्षिण में हैं। इसका एक सबसे बड़ा कारण उनके भद्रबाहू स्वामी जो उज्जैनी में थे, वहाँ पर अकाल पड़ने से दक्षिण की ओर चले गये। उन्होंने वहाँ तीर्थ स्थापित किये।
मूर्ति निर्माण एवं मान्यताओं में भेदःदिगम्बर समाज के श्वेताम्बर समाज से अलग होने के साथ
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