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"सम्मेद शिखर-विवाद क्यों और कैसा?"
में असफल होने के बाद उलटे-सीधे रास्ते से लालू यादव को पटा कर जो खेल, खेला गया है वह समूचे जैन समाज के लिए गम्भीर रूप से विचारणीय विषय है।
हम जानना चाहेंगे कि उक्त आरोपों और तर्कों के सहारे यदि दिगम्बरों के आधीन तीर्थों में श्वेताम्बर भी प्रबन्धन में हिस्सेदारी की मांग करें तो क्या दिगम्बरी इसे बर्दाश्त कर पायेंगे?
और इस तरह की मांग नैतिक और कानूनी दृष्टि से भी बौद्धिक दिवालियेपन की सूचक होने के साथ ही समाज एवं धार्मिक क्षेत्र में जाने-अनजाने विनाश के बीज बोने वाली है।
अशोकजी को यह नहीं भूलना चाहिए कि समाज को जोड़ने में वर्षों कड़ी मेहनत करनी पड़ती है लेकिन समाज को तोड़ने में कुछ क्षण ही पर्याप्त होते हैं । लालू यादव का सहारा लेकर मनोवांछित सफलता की प्रथम सीढ़ी जरूर पार कर ली गई है लेकिन अन्तिम सीढ़ी को पार करना लालू जैसा खेल नहीं है। लालू यादव अपनी करतूतों से जितने बदनाम हो गये हैं उतना शायद ही कोई राजनेता हुआ होगा। अब तक तो वे खतरों को खिलाया करते थे लेकिन कालचक्र ने पासा पलट कर रख दिया है एवं आज खतरें उन्हें खिला रहे हैं।
सम्मेत शिखरजी के विवाद को लेकर "पंजाब केसरी" दैनिक ने भी एक विस्तृत लेख 16 मई 1994 को प्रकाशित किया था जिसका अन्तिम पैराग्राफ लालू यादव की कार्य-प्रणाली पर अच्छा प्रकाश डालता है जो निम्न प्रकार है
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